यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतना घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 0141-2222225, 98285-02666

20.4.14

भारत में फलता-फूलता मुकदमेबाजी उद्योग


  1. इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो।
  2. “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”-विलियम शेक्स्पेअर।
  3. न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है।
  4. विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत, 1992 में 85 प्रतिशत और 2011 में 93 थी।
  5. जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है।
  6. उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, .... जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं।
मनीराम शर्मा, एडवोकेट
  
भारतीय न्यायातंत्र उर्फ मुकदमेबाजी उद्योग ने बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध करवा रखा है। देश में अर्द्ध–न्यायिक निकायों को छोड़कर 20,000 से ज्यादा न्यायाधीश, 2,50,000 से ज्यादा सहायक स्टाफ, 25,00,000 से ज्यादा वकील, 10,00,000 से ज्यादा मुंशी टाइपिस्ट, 23,00,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी इस व्यवसाय में नियोजित हैं और वैध–अवैध ढंग से जनता से धन ऐंठ रहे हैं। अर्द्ध-न्यायिक निकायों में भी समान संख्या और नियोजित है। फिर भी परिणाम और इन लोगों की नीयत लाचार जनता से छुपी हुई नहीं हैं। भारत में मुक़दमेबाजी उद्योग एक कुचक्र की तरह संचालित है, जिसमें सत्ता में शामिल सभी पक्षकार अपनी-अपनी भूमिका निसंकोच और निर्भीक होकर बखूबी निभा रहे हैं। प्राय: झगड़ों और विवादों का प्रायोजन अपने स्वर्थों के लिए या तो राजनेता स्वयं करते हैं या वे इनका पोषण करते हैं। अधिकाँश वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से चिपके रहते हैं और उनके माध्यम से वे अपना व्यवसाय प्राप्त करते हैं, क्योंकि विवाद के पश्चात पक्षकार सुलह–समाधान के लिए अक्सर राजनेताओं के पास जाते हैं और कालांतर में राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क वाले वकील ही न्यायाधीश बन पाते हैं। इस बात का खुलासा सिंघवी सीडी प्रकरण ने भी कर दिया है। इस प्रकरण ने यह भी दिखा दिया कि न्यायाधीश बनने के लिए आशार्थी को किन कठिन परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। भारत में किसी चयन प्रक्रिया में न्यायाधीशों या विपक्ष को भी शामिल करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जिस प्रक्रिया में जितने ज्यादा लोग शामिल होंगे; उसमें भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी लोग तुष्ट होने पर ही कार्यवाही आगे बढ़ पाएगी। यदि निर्णय प्रक्रिया में भागीदारों की संख्या बढाने या विपक्ष को शामिल करने से स्वच्छता आती तो हमें विधायिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती। इसलिए प्रक्रिया में जितना प्रसाद मिलेगा, उसका बँटवारा प्रत्येक भागीदार की मोलभाव शक्ति के अनुसार होगा और अंतत: यह बंदरबांट का रूप ले लेगी। कहने को चाहे संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते होंगे, किन्तु वास्तव में यह भी राजनीति की इच्छाशक्ति की सहमति से ही होता है। जहां राजनीति किसी नियुक्ति पर असहमत हो तो, देश में वकील और न्यायाधीश कोई संत पुरुष तो हैं नहीं, वे प्रस्तावित व्यक्ति के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच खोलकर उसकी नियुक्ति बाधित कर देते हैं। अन्यथा दागी के विरुद्ध किसी प्रतिकूल रिपोर्ट को भी नजर अंदाज कर दबा दिया जाता है। विलियम शेक्स्पेअर ने भी (हेनरी 4 भाग 2 नाट्य 4 दृश्य 2) में कहा है , “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”

वैसे भी भारत की राजनीति किसी दलदल से कम नहीं है और लगभग सभी नामी और वरिष्ठ वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, जिसमें दोनों का आपसी हित है और दोनों एक दूसरे का संरक्षण करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तो वैसे ही गोपनीय है और उसमें पारदर्शिता का नितांत अभाव है। न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है। अमेरिका में न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के समय उसकी पात्रता–बुद्धिमता, योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी आदि की कड़ी जांच होती है और प्रत्येक पद के लिए दो गुने प्रत्याशियों की सूची राज्यपाल को नियुक्ति हेतु सौंपी जाती है, जबकि भारत में ऐसा कदाचित नहीं होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों पर यौन शोषण के आरोप लगे और यह पाया गया कि उन्होंने शाराब का सेवन किया तथा पीड़ित महिला को भी इसके लिए प्रस्ताव रखा। इससे यह प्रामाणित होता है कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले रहे हैं, जिनमें सात्विक और सद्बुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से ऐसे चरित्रवान लोगो को इन गरिमामयी पदों पर नियुक्त करने में देश से भारी भूलें हुई हैं, चाहे उन्हें दण्डित किया जाता है या नहीं। न्यायाधीश होने के लिए मात्र विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह मन से सद्बुद्धि और सात्विक होना चाहिए। अन्यथा सद्चरित्र के अभाव में ऐसा पांडित्य तो रावण के समान चरित्र को ही प्रतिबिंबित कर सकता है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 1992 में 85 प्रतिशत हो गयी है। वहीं वर्ष 2011 में अमरीकी न्याय विभाग ने दोष सिद्धि की दर 93 प्रतिशत बतायी है। भारत में आपराधिक मामलों में पुलिस अनुसंधान में विलंब करती है, फिर भी दोष सिद्धियाँ मात्र 2 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती हैं। इसका एक संभावित कारण है कि पुलिस वास्तव में मामले की तह तक नहीं जाती, अपितु कुछ कहानियां गढ़ती है और झूठी कहानी गढ़ने में उसे समय लगना स्वाभाविक है। दोष सिद्धि की दर अमेरिकी राज्य न्यायालयों में भी पर्याप्त ऊँची है। रिपोर्ट के अनुसार यह टेक्सास में 84 प्रतिशत, कैलिफ़ोर्निया में 82 प्रतिशत, न्यूयॉर्क में 72 प्रतिशत उतरी कैलिफ़ोर्निया में 67 प्रतिशत और फ्लोरिडा में 59 प्रतिशत है। इंग्लॅण्ड के क्राउन कोर्ट्स में भी दोष सिद्धि की दर 80 प्रतिशत है। हांगकांग के सत्र न्यायालयों में 92 प्रतिशत, वेल्स के सत्र न्यायालयों में 80 प्रतिशत, कनाडा के समान न्यायालयों में 69 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया के न्यायालयों में 79 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धि जनता पर एक भार नहीं हैं? क्या इतना परिणाम यदि देश में बैंकिंग या अन्य उद्योग दें तो सरकार इसे बर्दास्त कर सकेगी? फिर न्यायतंत्र के ऐसे निराशाजनक परिणामों को सत्तासीन और विपक्ष दोनों क्योंकर बर्दास्त कर रहे हैं? इससे न्यायतंत्र के भी राजनैतिक उपयोग की बू आती है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वसूली हेतु दायर किये गए मामलों में भी, जहां पूरी तरह से सुरक्षित दस्तावेज बनाकर ऋण दिए जाते हैं, वसूली मात्र 2 प्रतिशत वार्षिक तक सीमित है, जबकि इनमें लागत 15 प्रतिशत आ रही है। देश की जनता को न्यायतंत्र की इतनी विफलता में क्रमश: न्यायपालिका, विधायिका, पुलिस व वकीलों के अलग-अलग योगदान को जानने का अधिकार है। 

जहां तक नियुक्ति या निर्णयन की किसी प्रक्रिया में पक्ष-विपक्ष को शामिल करने का प्रश्न है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जो पक्ष आज सता में है-कल विपक्ष में हो सकता है और ठीक इसके विपरीत भी। अत: इन दोनों समूहों में वास्तव में आपस में कोई संघर्ष-टकराव नहीं होता है, जो भी संघर्ष होता है-वह मात्र सस्ती लोकप्रियता व वोट बटोरने और जनता को मूर्ख बनाने के लिए होता है। यद्यपि प्रजातंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, अपितु यह तो जनता की सक्रिय भागीदारी से संचालित शासन व्यवस्था का नाम है। जनतंत्र में न तो जनता जनप्रतिनिधियों के बंधक है और न ही जनतंत्र किसी अन्य द्वारा निर्देशित कोई व्यवस्था का नाम है। न्यायाधिपति सौमित्र सेन पर महाभियोग का असामयिक पटाक्षेप और राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भल्ला द्वारा अपर सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को देश की जनता देख ही चुकी है, जहां मात्र अनुचित नियुक्तियों को निरस्त ही किया गया और किसी दोषी के गिरेबान तक कानून का हाथ नहीं पहुँच सका। जिससे यह प्रमाणित है कि जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति हेतु आशार्थियों की सूची को पहले सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि अवांछनीय और अपराधी लोग इस पवित्र व्यवसाय में अतिक्रमण नहीं कर सकें। वर्तमान में तो इस व्यवसाय के संचालन में न्याय-तंत्र का अनुचित महिमामंडन करने वाले वकील, उनके सहायक, न्यायाधीश और पुलिस ही टिक पा रहे हैं।

हाल ही में उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश की पदस्थापना के लिए यह नीति बनायी गयी कि मुख्य न्यायाधीश किसी बाहरी राज्य का हो,  किन्तु यह नीति न तो उचित है और न ही व्यावहारिक है। न्यायाधीश पूर्व वकील होते हैं और वे राजनीति के गहरे रंग में रंगे होते हैं। इस वास्तविकता की ओर आँखें नहीं मूंदी जा सकती। अत: देशी राज्य के वकीलों का ध्रुवीकरण हो जाता है और बाहरी राज्य का अकेला मुख्य न्यायाधीश अलग थलग पड़ जाता है तथा वह चाहकर भी कोई सुधार का कार्य हाथ में नहीं ले पाता, क्योंकि संवैधानिक न्यायालयों में प्रशासनिक निर्णय समूह द्वारा लिए जाते हैं। वैसे भी यह नीति देश की न्यायपालिका में स्वच्छता व गतिशीलता रखने और स्थानान्तरण की सुविचारित नीति के विरूद्ध है। जहां एक ओर सत्र न्यायाधीशों के लिए समस्त भारतीय स्तर की सेवा की पैरवी की जाती है, वहीं उच्च न्यायालयों के स्तर के न्यायाधीशों के लिए इस तरह की नीति के विषय में कोई विचार तक नहीं किया जा रहा है, जिससे न्यायिक उपक्रमों में स्वच्छता लाने की मूल इच्छा शक्ति पर ही संदेह होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालयों द्वारा आवश्यकता होने पर पुलिस केस डायरी मंगवाई जाती है, किन्तु उसे बिना न्यायालय के आदेश के ही लौटा दिया जाता है। जिससे यह सन्देश जाता है कि न्यायालय और पुलिस हाथ से हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हैं न कि वे स्वतंत्र हैं। क्या न्यायालय एक आम नागरिक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को भी बिना न्यायिक आदेश के लौटा देते हैं? केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार राज्य के महाधिवक्ता द्वारा प्रकरणों में तैयार होकर न आने पर न्यायालय से ही वाक आउट कर दिया, बजाय इसके कि कार्यवाही को आगे बढ़ाते अथवा महाधिवक्ता पर समुचित कार्यवाही करते अर्थात जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। भारत का आम नागरिक तो न्यायालयों में चलने वाले पैंतरों, दांव-पेंचों आदि से परिचित नहीं हैं, किन्तु देश के वकीलों को ज्ञान है कि देश में कानून या संविधान का अस्तित्व संदिग्ध है। अत: वे अपनी परिवेदनाओं और मांगों के लिए दबाव बनाने हेतु धरनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, विरोधों आदि का सहारा लेते हैं। आखिर पापी पेट का सवाल है। कदाचित उन्हें सम्यक न्यायिक उपचार उपलब्ध होते तो वे ऐसा रास्ता नहीं अपनाते। सामान्यतया न्यायार्थी जब वकील के पास जाता है तो उसके द्वारा मांगी जानी वाली आधी राहतों के विषय में तो उसे बताया जाता है कि ये कानून में उपलब्ध नहीं हैं और शेष में से अधिकाँश देने की परम्परा नहीं है अथवा साहब देते नहीं हैं।

पारदर्शिता और भ्रष्टाचार में कोई मेलजोल नहीं होता है, इस कारण न्यायालयों एवं पुलिस का स्टाफ अपने कार्यों में कभी पारदर्शिता नहीं लाना चाहता है। देश के 20,000 न्यायालयों के कम्प्यूटरीकरण की ईकोर्ट प्रक्रिया 1990 में प्रारंभ हुई थी और यह आज तक 20 उच्च न्यायालयों के स्तर तक भी पूर्ण नहीं हो सकी है। दूसरी ओर देखें तो देश की लगभग 1,00,000 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य 10 वर्ष में पूर्ण हो गया। इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की कम्प्यूटरीकरण में अरुचि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है जो माननीय कहे जाने वाले न्यायाधीशों के सानिध्य में ही संचालित हैं। देश के न्यायालयों में सुनवाई पूर्ण होने की के बाद भी निर्णय घोषित नहीं किये जाते तथा ऐसे भी मामले प्रकाश में आये हैं, जहां पक्षकारों से न्यायाधीशों ने मोलभाव किया और निर्णय जारी करने में 6 माह तक का असामान्य विलम्ब किया। वैसे भी निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के 5-6 दिन बाद ही घोषित करना एक सामान्य बात है। कई बार पीड़ित पक्षकार को अपील के अधिकार से वंचित करने के लिए निर्णय पीछे की तिथि में जारी करके भी न्यायाधीश पक्षकार को उपकृत करते हैं। जबकि अमेरिका में निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के बाद निश्चित दिन ही जारी किया जाता है और उसे अविलम्ब इन्टरनेट पर उपलब्ध करवा दिया जाता है। अपने अहम की संतुष्टि और शक्ति के बेजा प्रदर्शन के लिए संवैधानिक न्यायालय कई बार भारी खर्चे भी लगाते हैं, जबकि इसके लिए उन्होंने ऐसे कोई नियम नहीं बना रखे हैं, क्योंकि नियम बनाने की उन्हें कोई स्वतंत्र शक्तियां प्राप्त भी नहीं हैं। एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 40 लाख रुपये खर्चा लगाया जो उच्चतम न्यायालय ने घटाकर मात्र 25 हजार रुपये कर दिया। इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोग निष्पक्ष की बजाय पूर्वाग्रहों पर आधारित होते हैं व देश की अस्वच्छ राजनीति की ही भांति उनका आपसी गठबंधन व गुप्त समझौता होता है और समय पर एक दूसरे के काम आते हैं। अत: निर्णय चाहे एक सदस्यीय पीठ दे या बहु सदस्यीय पीठ दे, उसकी गुणवता में कोई ज्यादा अंतर नहीं आता है। न्यायालयों द्वारा कई बार नागरिकों पर भयावह खर्चे लगाए जाते हैं, जबकि खर्चे शब्द का शाब्दिक अर्थ लागत की पूर्ति करना होता है और उसमें दंड शामिल नहीं है व लागत की गणना भी किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार न्यायालय पक्षकारों से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर किसी कानून के अंतर्गत दंड लगाया जाना हो तो संविधान के अनुसार उसे उचित सुनवाई का अवसर देकर ही ऐसा किया जा सकता है, किन्तु वकील ऐसे अवसरों पर मौन रहकर अपने पक्षकार का अहित करते हैं। 

वकालत का पेशा भी कितना विश्वसनीय है, इसकी बानगी हम इस बात से देख सकते हैं कि परिवार न्यायालयों, श्रम आयुक्तों, (कुछ राज्यों में) सूचना आयुक्तों आदि के यहाँ वकील के माध्यम से प्रतिनिधित्व अनुमत नहीं है अर्थात इन मंचों में वकीलों को न्याय पथ में बाधक माना गया है। फिर वकील अन्य मंचों पर साधक किस प्रकार हो सकते हैं? उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, यह तथ्य भी कई बार सामने आया है। जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं, जिससे उपरोक्त अवधारणा की फिर पुष्टि होती है।

देश में आतंकवादी गतिविधियाँ भी प्रशासन, पुलिस और राजनीति के सहयोग और समर्थन के बिना संचालित नहीं होती हैं। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी परिवहन, व्यापार आदि चलते रहते हैं, जो कि पुलिस और आतंकवादियों व संगठित अपराधियों दोनों को प्रोटेक्शन मनी देने पर ही संभव है। वैसे भी इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो। पुलिस के भ्रष्टाचार का अक्सर यह कहकर बचाव किया जाता है कि उन्हें उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। अत: कार्य सही नहीं किया गया, किन्तु रिश्वत लेने का भी तो उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता फिर वे इसके लिए किस प्रकार रास्ता निकाल लेते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति को गृहस्थी के संचालन का भी प्रारम्भ में कोई अनुभव नहीं होता, किन्तु अवसर मिलने पर वह आवश्यकतानुसार सब कुछ सीख लेता है। देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गिरफ्तारियां होती हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत अनावश्यक होती हैं। ये गिरफ्तारियां भी बिना किसी अस्वच्छ उद्देश्य के नहीं होती हैं, क्योंकि राजसत्ता में भागीदार पुलिस, अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारी आदि को इस बात का विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें, उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है और देश में वास्तव में ऐसा कोई मंच नहीं है जो प्रत्येक शक्ति-संपन्न व सत्तासीन दोषी को दण्डित कर सके। जहां कहीं भी अपवाद स्वरूप किसी पुलिसवाले के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती है, वह तो मात्र नाक बचाने और जनता को भ्रमित करने के लिए होती है। यदि पुलिस द्वारा किसी मामले में गिरफ्तारी न्यायोचित हो तो वे, घटना समय के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों में, गिरफ्तारी हेतु मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु न तो ऐसा किया जाता है और न ही देश का न्याय तंत्र ऐसी कोई आवश्यकता समझता है और न ही कोई वकील अपने मुवक्किल के लिए कभी मांग करता देखा गया है। यदि न्यायपालिका पुलिस द्वारा अनुसंधान में के मनमानेपन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जिससे मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धियाँ हासिल हो रही हों, तो फिर उसे दूसरे नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित करने का नैतिक अधिकार किस प्रकार प्राप्त हो जाता है?

30.3.14

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....













धारा - 498 (क) भारतीय दंड संहिता निम्न प्रकार है –

“किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उस के प्रति क्रूरता करना – जो कोई किसी स्त्री का पति या पति के नातेदार होते हुए, ऐसे स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा|”


संबद्ध विषय : इससे संबधित विषय निम्न हैं –

1- विवाह की संस्था,
2- विवाह की वैधानिक स्थिति,
3- विवाह में स्त्रीधन या दहेज की प्रथा (सामाजिक),
4 -विवाहोपरांत स्त्रीधन की माँग लेकर स्त्री की प्रति अव्यवहार,
5 -पति – पत्नी के आपसी सम्बन्ध पर असर,
6 -मतभेद झेल रहे / अत्याचार के साक्षी परिवार में बच्चों पर असर,
7 -पति या प्रतिपक्ष के द्वारा स्त्री के प्रति अपराधिक कार्रवाई,
8 -स्त्री के मानवधिकारों का पति या प्रतिपक्ष द्वारा हनन|

पृष्ठभूमि : दहेज प्रथा वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक कार्यवाही है जो विवाह के समय कन्या पक्ष की ओर से दी जाने वाली एक दान राशि है| यह राशि किसी भी रूप में हो सकती है – नकदी, वाहन, घर-मकान, जेवरात इत्यादि| जो कन्या के माता पिता स्वैच्छिक रूप से वर पक्ष को देते हैं| लेकिन कालांतर में यह स्वैच्छिक दान वर पक्ष की ओर से जोर-जबरदस्ती से उगाही करने वाला स्रोत बन गया| जिसका परिणाम यह हुआ कन्या को दहेज के लिए उत्पीड़ित किया जाने लगा| और कई मामलों में यह उत्पीडन से बढ़कर दहेज हत्या तक पहुँच गया| इन सामाजिक बुराइयों और अपराधों के हेतु कानून बनाये गए हैं|

भारतीय दंड संहिता की ‘धारा 498-क’ निर्ममता तथा दहेज के लिए उत्पीड़न, ‘धारा 304-ख’ इससे होने वाली मृत्यु और ‘धारा 496’ उत्पीड़न से तंग आकार महिलाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली घटनाओं से निपटने के हेतु कानून बनाए गए| 2005 में बने ‘घरेलू हिंसा कानून’ को भी इसी से जोड़ कर देखा जाने लगा| लेकिन इन सभी कानूनों ने मिलकर स्त्री और मायके पक्ष को इतनी अधिक शक्ति दे दी कि अब इनका दुरुपयोग किया जाने लगा| स्थिति ऐसी बनी कि अब वधू पक्ष के बजाय वर पक्ष को अनेक तरह से सताया जाने लगा| अतः आज पीड़ित वर पक्ष के ओर से इसे बदलने की माँग की जाने लगी है|


दहेज उत्पीड़न व दहेज हत्या : विवाह और हत्या दोनों अलग अलग बिन्दु है| उत्पीड़न में पीड़ित व्यक्ति जीवित रहता है और अपनी बचाव की गुहार करता है| जबकि हत्या में पीड़ित व्यक्ति ही मृत हो जाता है| कानून भी दोनों के लिए अलग-अलग दंड देता है| उत्पीड़न से जुड़ा होने पर कानून ‘धारा 498-क’ तथा ‘घरेलू हिंसा अधिनियम’ के तहत कार्यवाई करता है जबकि हत्या में ‘धारा 304-ख, 307’ के तहत कार्य करता है| अतः यह स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे से जुड़े होने के बावजूद भी एक निश्चित स्तर पर पहुँच कर दोनों अलग-अलग हो जाते हैं|

दहेज उत्पीड़न - प्रकार :

1- शारीरिक (मारपीट करना, खाने को ना देना बिना सहमति के शारीरिक सम्बन्ध बनाना आदि)

2- मानसिक (गालीगलौच करना, अपशब्द कहना, ताने मारना, अभद्र व्यहार करना आदि)

3- सामाजिक (सामाजिक साख के विरुद्ध कार्य करना या समाज में अपमानित करना आदि)

4- आर्थिक (नकद, चल-अचल संपत्ति, जेवरात छीन लेना आदि)



दहेज उत्पीड़न : अपराध या सामाजिक समस्या ?

दहेज उत्पीड़न अपराध है या सामाजिक समस्या, इसके बीच बहुत ही सूक्ष्म अंतर है| वह अंतर यह है कि दहेज कारक है उत्पीड़न का| और दहेज को सामाजिक मान्यता मिली हुई है| इस स्थिति में दहेज एक सामाजिक समस्या है| लेकिन जब यह दहेज की प्रथा उत्पीड़न तक पहुँच जाती है और यदाकदा हत्या तक, तब यह अपराध बन जाती है| जिसे ना समाज स्वीकार करता है ना ही कानून|

सामाजिक समस्याओं (Social Evil) के उपचार में कानून की भूमिका : दहेज कोई पहली सामाजिक समस्या नहीं है जो उभर कर सामने आई है इससे पहले भी सम्स्याएं रहीं है जिनका उपचार कहीं समाज में बदलाव से कहीं कानून बना कर रोक लगाये जाने समाप्त हुई हैं जैसे –

सती प्रथा का उपचार – इसमें कानून आगे चला और समाज पीछे

बाल विवाह का उपचार – इसमें समाज आगे रहा और कानून पीछे


समाज में सती प्रथा के अंत में कानून का मुख्य भूमिका रही है| यह सीधे सीधे व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को ही छीन लेता था| जिसे कानून के भय और सामाजिक जागरूकता से रोका गया| वहीँ बाल विवाह में समाज के पारिस्थितिक ढांचागत बदलाव (शिक्षा, कैरियर, नौकरी आदि) के कारण बहुत बड़ा परिवर्तन आया| साथ ही साथ कानून ने इस परिवर्तन को और अधिक बल दिया| जबकि दहेज की समाज में स्वीकार्यता है इसलिए समाज द्वारा स्वीकार्य होने के कारण इसमें कोई भीषण बदलाव की गुंजाइश नहीं बचती है| (आज तक की लम्बी अवधि गुजरना इसका एक प्रमाण है) और वहीँ कानून भी दहेज को रोकने में अक्षम साबित होता है| क्योंकि दहेज एक ऐसा दान है जो स्वैच्छिक है| अतः दान पर पाबन्दी नहीं लगाई जा सकती है| और दहेज कोई एकमेव कारण नहीं है जिसके कारण उत्पीड़न होता है, इसके अन्य कारण भी है| अतः उपचार की आवश्यकता विवाहोपरांत उत्पीड़न में है|




परिदृश्य परिवर्तन : विवाहोपरांत उत्पीड़न कारण – 

1- बेमेल विवाह (यह उम्र, शैक्षणिक योग्यता, मानसिक स्तर, परिवारक स्तर, आर्थिक स्तर आदि तमाम रुपों में देखा जा सकता है|)

2- स्त्री पुरुष कि पारस्परिक इच्छा के विरूद्ध शादी (आज के समय में अपने भविष्य को लेकर चाहे पुरुष हो या स्त्री सभी सचेत रह कर निर्णय लेना चाहते हैं परन्तु पारिवारिक दबाव में आकार वह विवाह अवश्य कर लेते है लेकिन वह चल नहीं पाते हैं|)

3- स्त्री की विशेष सामाजिक स्थिति (स्त्री दो परिवारों से जुड़ी होती है उसके माध्यम से उसके परिवारों को ब्लैकमेल कर सकते हैं या उसमे कम अभिरूची रखने वाला पक्ष दूसरे पक्ष को ब्लैकमेल कर सकता है|)

4- दहेज के लालच में किये गए बेमेल विवाह (अभी भी सामा- जिक मानसिकता यह है कि यदि वर पक्ष के पास घर है, पैसा है, प्रतिष्ठा है - तो विवाह कर दिए जाते हैं यह बात वधू पक्ष पर खास तौर से लागू होती है|)

5- दांपत्य जीवन में व्यभिचार संदेह की स्थिति (आज के खुले समाज में यह संदेह या शक की सुइयां दोनों ही तरफ बराबर प्रहार करती हैं)

उपचार की आवश्यकता :

1- विवाह में स्त्री पुरुष की आपसी सहमति होनी आवश्यक है| जो पारिवारिक या किसी अन्य दबाव रहित हो| क्योंकि अंतिम रूप से वही दोनों इस बंधन को निभाते हैं|

2- उपर्युक्त बिन्दु का पालन किया जाये तो बेमेल विवाह की समस्या स्वयं ही समाप्त हो जायेगी|

3- स्त्री की समाज में विशेष स्थिति होती है जबकि पुरुष एक परिवार में जन्म लेता है और वहीँ रहता है| स्त्री अपने जन्म घर को छोड़कर पुरुष के घर आती है| यदि वहीँ पुरुष घर छोड़ कर स्त्री के घर जाये तो उसकी भी कमोबेश यही स्थिति होगी| या फिर स्त्री के असल माँ बाप और भाई, स्त्री को उसके वैवाहिक घर से अलग कर के रखना चाहे तो क्या उस स्थिति में पुरुष और उसके बच्चे पीड़ित नहीं होंगे| अतः इस सामाजिक ढांचागत स्थिति विशेष में कोई विशेष उपचार का कोई विकल्प नहीं है|

4- साथ ही साथ समाज में यह जागरूकता भी लाने की कोशिश करनी होगी कि पैसा, पद, प्रतिष्ठा आदि ही सुख का आधार नह बनते हैं| क्योंकि यह सभी जड़ चीजें हैं हमें व्यक्ति विशेष पर जोर देना चाहिये ना कि उसके मान-सम्मान, धन-दौलत की|

5- इन सब के साथ ही व्यक्ति को अपने चारित्रिक नैतिकता को भी बचा कर रखना चाहिये| ताकि इस खुले समाज का असर उनके व्यक्तिगत जीवन पर ना पड़े|

उपचार योग्य बिन्दु :

1- विवाह की संस्था -

a. क़ानूनी विवाह

b. सामाजिक विवाह

c. प्रेम विवाह

d. लिव इन रिलेशनशिप

2- विवाह की क़ानूनी मान्यता -

3- विवाह विच्छेद की परिस्थितयां -
a. संतान हीन दम्पति
b. संतान युक्त दंपत्ति
4- उत्पीड़न का क़ानूनी समाधान
5- दोषी की पहचान और दंड के नियम
6- पीड़ित की पहचान और न्याय

सुझाव :

1- संस्था से जुड़े सुझाव -

 

a. क़ानूनी विवाह समाज व व्यक्ति द्वारा लिया गया जागरूक निर्णय है| कानून जिस सम्बन्ध का साक्षी होता है उसके उपचार का भी दायित्व कानू का है|

b. सामाजिक विवाह समाज की स्वीकृति का परिणाम है और समाज कानून का मुखोपेक्षी नहीं है, यदि उसका कृत्य अपराध के दायरे से बाहर है| इस स्थिति में दंपत्ति ने समाज के विश्वास पर आपसी निर्णय लिया होता है| इस स्थिति में उपचार का दायित्व समाज पर है, शर्त यह है कि उसका उपचार विधि विरुद्ध ना हो|

c. प्रेम विवाह व लिव इन व्यक्ति की चरम स्वतंत्रता से लिए गए निर्णय है, इस स्थिति में उपचार आपसी सहमति से हो सकता है| सहमति की अनुपस्थिति में क़ानूनी विवाह के नियम माने जाने चाहिये|

d. क़ानूनी विवाह से इतर व्यवस्थाओं में बच्चों का भविष्य असुरक्षित होता है| जिसके प्रतिवाद में वे अक्षम होते हैं| अतः न्याय सुनिश्चित करने के लिए किसी भी प्रकार के विवाह की स्थिति में प्रसव के समय विवाह का निबंधन अनिवार्य है|


2- क़ानूनी मान्यता से जुड़े सुझाव -
a. कानून केवल उन्ही परिवारों को मान्यता देगा जो क़ानूनी प्रक्रिया के अनुसार हुए है|
b. बच्चे के जन्मोंपरांत हर विवाह अनिवार्य रूप से क़ानूनी मान्यता प्राप्त होगा|
c. संतानहीन विवाह की स्थिति में सामाजिक, प्रेम विवाह, लिव इन क़ानूनी हस्तक्षेप से मुक्त होंगे व कानून की दृष्टि में वादों का निपटारा अन्य अपराधों के अन्तर्गत होगा|

3- विवाह विच्छेद से जुड़े सुझाव -
a. विच्छेद की प्रक्रिया को अत्यंत सरल व त्वरित होना चाहिये|
b. विच्छेद पूर्व योग्य परामर्शदाता से सीमित व समयबद्ध व्यवस्था की जा सकती है|
c. संतान हीन दम्पति का विच्छेद
i- यदि दम्पति की कभी कोई संतान नही रही है, तो यथावत विच्छेद स्वीकृत हो जायेगा|
d. यदि दम्पति संतानयुक्त है, या उनकी कभी कोई संतान रही है, तो विच्छेद की स्वीकृति दम्पति के क्रमानुसार नसबंदी व बंध्याकरण की शर्त के अधीन होगा| यह नसबंदी या बंध्याकरण ज्ञात चिकित्सकीय उपायों के तहत अंतिम व सताई होना चाहिये|


4- उत्पीड़न की स्थिति में सुझाव –

a. किसी विशेष क़ानूनी उपचार की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है|
b. तीन से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|
c. यदि विच्छेद अनिवार्य किया जा रहा है तो वैसी स्थिति में उत्पीड़क के द्वारा उत्पीड़ित को यथोचित मुआवजा दिया जा सकता है|


5- दोषी की उचित पहचान- उक्त व्यवस्था से दोषी की उचित पहचान की जा सकेगी तथा दंड के नियम भी समाज को अपराध से विरत कर सकेंगे| पीड़ित के रूप में उत्पीड़ित के महिला या पुरुष ही नहीं, बच्चे का महत्वपूर्ण स्थान है और इस शास्ति से उसे सर्वाधिक उचित न्याय दिया जा सकेगा|

संभावित परिणाम :

1- इसके संभावित परिणामों में सर्वप्रथम विवाह के पंजीकरण में वृद्धि होगी| समाज सुरक्षा के लिए क़ानूनी विवाह को अपनाएगा| साथ ही बच्चे के जन्म के समय विवाह के निबंधन की अनिवार्यता होने से पहले हुए विवाहों का पंजीकरण हो जायेगा| यह वैवाहिक सुरक्षा ‘pull’ और बच्चे के जन्म के समय अनिवार्यता ‘push’ का काम करेगी|

2- न्यायोचित तरीके से जनसंख्या में कमी की जा सकेगी| क्योंकि यदि कोई विवाह विच्छेद करता है तो वह संतानोत्पत्ति में अक्षम होगा| इससे उनकी विवाह पूर्ण संतान को पूर्ण हक़ मिलता रहेगा| क्योंकि अंतिम रूप से वही उनकी संतान रहेगी|

3- इस सब में व्यक्ति में जिम्मेदारी की भावना का विकास होगा| और वह अपने परिवार को भय से सही लेकिन तवज्जो देगा|

4- तलाक के मामले में आरंभिक वृद्धि होगी जबकि बाद के समय में कमी आएगी| साथ ही वैवाहिक जीवन के प्रति रूढ़ नजरिये में भी बदलाव आएगा|

5- उत्पीड़न की स्थितियों में कमी आएगी| क्योंकि तीन बार से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|

6- इस सब के साथ इसमें सामाजिक सहमतियाँ भी बनाई जा सकती है| जैसे तीन बार से अधिक बार उत्पीडन पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है| यह मुस्लिम समुदाय में प्रचलित ‘तीन तलाक’ के रिवाज की क़ानूनी अनुकृति है| इस कानून में मुस्लिम समुदाय अपने कानूनों की छाया देखेगा – अतः वह इसे स्वीकार करेगा| वहीँ हिंदुओं में विवाह की संस्था में विच्छेद का कोई प्रावधान ही नहीं है| अतः कठिनतम स्वीकृति के कारण वह भी इसे अपनायेगा| वहीँ ईसाई इसे व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता के रूप में देखेंगे और वह भी इस कानून को अपनी सहमति देंगे|

7- साथ ही इस सबके बाद भी कुछ मुद्दों पर इसका विरोध होगा, जैसे नसबंदी का मुद्दा| लेकिन यह विरोध सभी धर्मों से बराबर आएगा| अतः इसे जागरूकता के साथ और व्यावहारिक स्तर पर जनता के सामने लाना होगा| साथ ही यह भी याद रखना होगा कि सभी बदलाव लाने वाले नाए कानूनों का विरोध होता रहा है लेकिन उनका पालन करके समाज ने सुकून ही महसूस किया है|

8- इसके साथ ही इससे सामाजिक चिंतन में एक बदलाव की प्रक्रिया भी आरम्भ होगी|

संभावित परिणामों को इतने कम में आंकना परिणामों के प्रति उदासीनता होगी, अतः कहा जा सकता है इस बदलाव के बहुमुखी परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे|

(राज्य सभा, श्री भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता वाली समिति को भारतीय दंड सहिंता, 1860 की 'धारा 498-क' में संशोधन हेतु भेजे गए सुझाव|)

7.5.12

महिला द्वारा पति व ससुराल पर अत्याचार का झूठा मामला बन सकता है तलाक का आधार: हाई कोर्ट


महिला द्वारा पति व ससुराल पर अत्याचार का झूठा मामला बन सकता है तलाक का आधार : हाई कोर्ट

बम्बई उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि किसी महिला द्वारा अपने पति तथाससुराल के लोगों पर अत्याचार का झूठा मामलादर्ज कराना भी तलाक का आधार बन सकता है।अदालत की पीठ ने हाल में एक मामले में तलाक मंजूर करते हुए कहा हमारी नजर में एक झूठे मामले में पतिऔर उसके परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी से हुई उनकी बेइज्जती और तकलीफ मानसिक प्रताड़नादेने के समान है और पति सिर्फ इसी आधार परतलाक की माँग कर सकता है।

न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी देशपांडे तथा न्यायमूर्ति आरपी सोंदुरबलदोता की पीठ ने पारिवारिक अदालत के उस फैसले से असहमति जाहिर की, जिसमें पत्नी द्वारा पति तथा उसके परिजनों के खिलाफ एक शिकायत दर्ज करवाना उस महिला के गलत आरोप लगाने की आदत की तरफ इशारा नहीं करता।

पीठ ने कहा हम पारिवारिक अदालत की उस मान्यता सम्बन्धी तर्क को नहीं समझ पा रहे हैं कि सिर्फ एक शिकायत के आधार पर पति और उसके परिवार के लोगों की गिरफ्तारी से उन्हें हुई शर्मिंदगी और पीड़ा को मानसिक प्रताड़ना नहीं माना जा सकता। यह बेबुनियाद बात है किमानसिक प्रताड़ना के लिए एक से ज्यादा शिकायतें दर्ज होना जरूरी है।

यह मामला आठ मार्च 2001 को वैवाहिक बंधन में बँधे पुणे के एक दम्पति से जुड़ा है। पति ने आरोप लगाया था कि शादी की रात से ही उसकी पत्नी ने यह कहना शुरू कर दिया था कि उसके साथ छल हुआ है, क्योंकि उसे विश्वास दिलाया गया था कि वह मोटी तनख्वाह पाता है। पति का आरोप है कि उसकी पत्नी ने उसके तथा अपनी सास के खिलाफ क्रूरता का मुकदमा दायर किया था। बहरहाल, निचली अदालत ने सुबूतों के अभाव में दोनों लोगों को आरोपों से बरी कर दिया था।

उसके बाद पति ने पारिवारिक अदालत में तलाक की अर्जी दी थी, लेकिन उस अदालत ने कहा कि पत्नी द्वारा एकमात्र शिकायत दर्ज कराने का यह मतलब नहीं है कि उसे झूठे मामले दायर कराने की आदत है। अदालत ने कहा था कि महज इस आधार पर तलाक नहीं लिया जा सकता। बहरहाल, बाद में उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले से असहमति जाहिर की।-अदालत

‘पत्‍नी द्वारा कंडोम के इस्‍तेमाल पर जोर देना मानसिक प्रताड़ना नहीं’


‘पत्‍नी द्वारा कंडोम के इस्‍तेमाल पर जोर देना मानसिक प्रताड़ना नहीं’

बॉम्‍बे हाईकोर्ट ने एक व्‍यक्ति को इस आधार पर तलाक देने से मना कर दिया है कि उसकी पत्‍नी सेक्‍स के दौरानकंडोम के इस्‍तेमाल पर जोर देती है और इससे उसे मानसिक प्रताड़ना होती है।

जस्टिस पी बी मजूमदार और जस्टिस अनूप मोहता की पीठ ने प्रदीप बापट (30) की तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया । बापट ने कहा था कि पत्‍नी उसके साथ तब तक शारीरिक संबंध नहीं बनाती जब तक वह कंडोम नहीं पहन लेता। उसने अदालत से यह भी कहा कि पत्‍नी ने यह कह कर बच्‍चा पैदा करने से इंकार कर दिया कि उनकी माली हालत ठीक नहीं है इसलिए वे बच्‍चे का बोझ नहीं उठा सकते।

अदालत ने कहा कि यह आपसी सहमति से होने वाला फैसला है और इसमें पति जोर जबरदस्‍ती नहीं कर सकता। अदालत ने प्रदीप की तलाक मांगने के लिए यह दलीलें भी अस्‍वीकार कर दीं कि पत्‍नी को खाना बनाना नहीं आता , वह अपनी तनख्‍वाह का साझा नहीं करती और उसे कपड़ों की तह बना कर रखना नहीं आता।
जस्टिस मजूमदार ने कहा कि एक महिला दास नहीं है और याची का परिवार दकियानूसी है। वे लोग चाहते हैं कि उन्‍हें एक आदर्श किस्‍म की बहू मिले । अदालत ने बापट की पत्‍नी से सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि उसे यहां शादी नहीं करनी चाहिये थी।-अदालत

पति ने नहीं बनाये यौन संबंध तो दिया तलाक


पति ने नहीं बनाये यौन संबंध तो दिया तलाक

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ऐसी महिला की तलाक की याचिका कबूल कर ली है जिसके पति ने यह कहते हुए यौन संबंध बनाने से इनकार कर दिया था कि पहले वह अपनी शैक्षणिक योग्यता और नौकरी को साबित करे। हालांकि दिल्‍ली हाईकोर्ट ने उसे इस लिए स्‍वीकार भी कर लिया क्‍योंकि हाल ही में उसने अपने एक फैसले में कहा था कि यदि पति या पत्‍नी में से कोई भी बेडरूम में संबंध बनाने से इंकार करता है तो वो किसी प्रताड़ना से कम नहीं।
जस्टिस कैलाश गंभीर ने यह बात अपने फैसले में दोहराते हुए महिला द्वारा दी गई तलाक याचिका को मंजूर कर लिया। खास बात यह है कि पति ने पत्‍नी से सिर्फ यह कहकर बेडरूम में संबंध बनाने से इंकार कर दिया था, क्‍योंकि उसे लगता था कि उसकी पत्‍नी उसके स्तर की नहीं है। उसने पत्‍नी से कहा था कि वो पहले अपनी वो डिग्रियां दिखाये जिनका दावा शादी के वक्‍त किया गया था। यही नहीं उस नौकरी की वेतन पर्ची दिखाये जो नौकरी वो करती है।
कोर्ट ने माना है कि शादीशुदा जिंदगी में सामान्य शारीरिक संबंध बनाने से मना करना बिल्कुल गलत है। शादीशुदा जिंदगी में पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध बहुत मायने रखते हैं और दोनों में से किसी के भी द्वारा इससे इनकार करना दूसरे पर प्रताड़ना है। हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने इसी टिप्पणी के साथ उस महिला की तलाक की याचिका कबूल कर ली।
हालांकि इस मामले में यह बात भी सिद्ध हुई कि पत्‍नी ने शादी के वक्‍त उससे झूठ बोला था कि वो नौकरी करती है। शादी के कई दिन तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन कुछ महीनों बाद जब पति ने देखा कि उसकी पत्‍नी किसी तरह के काम पर नहीं जा रही है, तो उसने बेडरूम संबंधों से इंकार कर दिया।
पत्‍नी को यह बात अच्‍छी नहीं लगी, जिस वजह से घर में कलह हुई और कई बार झगड़े भी, अंतत: पत्नि ने तलाक का फैसला किया और पारिवारिक अदालत में याचिका दायर कर दी। पारिवारिक अदालत ने भी यही फैसला सुनाया था कि यदि शारीरिक संबंध नहीं बनते हैं तो शादी का कोई मतलब नहीं। और इसके बदले में नौकरी के प्रमाण पत्र मांगना किसी क्रूरता से कम नहीं।
याचिकाकर्ता महिला ने शादी से पहले दिए गए अपने बायोडाटा में खुद के नौकरी में होने की बात कही थी, जबकि वह नौकरी नहीं करती थी। इसके बाद पति ने उसके साथ यौन संबंध बनाना छोड़ दिया। इसी को आधार बनाकर महिला ने निचली अदालत से तलाक ले लिया था।
मामला हाईकोर्ट में आने पर न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया और कहा कि शारीरिक संबंध बनाने से पहले शैक्षणिक योग्यता का प्रमाण पत्र पेश करने की शर्त रखना निश्चित रूप से नृशंसता और क्रूरता है और हिंदू विवाह अधिनियम के तहत यह तलाक के आधारों में से एक है।
हाईकोर्ट में महिला के पति ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि उसने शादी के लिए अखबार में विज्ञापन दिया था। जिसके जवाब में महिला ने खुद के नौकरी में होने का दावा किया था। सुहागरात को दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बने थे, लेकिन इसके बाद पति ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। पति का कहना था कि शादी से पहले उसकी पत्नी नौकरी नहीं करती थी।
कई बार उसने शैक्षिक योग्‍यता के सर्टिफिकेट दिखाने के लिए भी कहा, लेकिन उसने सर्टिफिकेट नहीं दिखाया। पति का कहना था कि शहर में सहज जीवन-यापन करने के लिए उसे कामकाजी महिला की जरूरत थी। न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने अपने आदेश में कहा है कि पति ने इस पवित्र रिश्ते को सामान खरीद-फरोख्‍त का सिस्‍टम बना दिया है। पति ने पत्नी की नौकरी को ज्यादा तवज्जो दी।_अदालत  

24.3.12

अब तलाक के बाद भी पति की संपत्ति में हक होगा पत्नी का

Posted: 23 Mar 2012 11:03 PM PDT 
केंद्रीय कैबिनेट ने 23 मार्च को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में संशोधन के मकसद से तैयार विवाह कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 को संसद में पेश करने की मंजूरी दे दी है। इसके तहत दांपत्य जीवन में महिलाओं को कई नए अधिकार मिलेंगे। इस विधेयक के मुताबिक महिलाओं को तलाक के बाद भी पति की संपत्ति में पूरा अधिकार होगा। हालांकि उसे इसमें से कितनी संपत्ति दी जाएगी, इसका फैसला अदालत मामले के आधार पर करेगी। विधेयक की सबसे खास बात यह है कि इसमें पत्नी को अधिकार दिया गया है कि वह इस आधार पर तलाक मांग सकती है कि उसका दांपत्य जीवन ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जहां विवाह कायम रहना नामुमकिन है।
विधेयक के मुताबिक पति-पत्नी में तलाक के बावजूद गोद लिए गए बच्चों को भी संपत्ति में उसी तरह का हक होगा, जैसा कि किसी दंपति के खुद के बच्चों को।
विधेयक में यह व्यवस्था भी की गई है कि आपसी सहमति से तलाक का मुकदमा दायर करने के बाद दूसरा पक्ष अदालती कार्यवाही से भाग नहीं सकता। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 के तहत अभी व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्मातरण, मानसिक अस्वस्थता, गंभीर कुष्ठ रोग, गंभीर संचारी रोग और सात साल या अधिक समय तक जिंदा या मृत की जानकारी न होने के आधार पर तलाक लिया जा सकता है। स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 27 में भी तलाक के लिए इसी तरह के कारण दिए गए हैं। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी और स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 28 में तलाक की याचिका दायर करने के लिए आपसी सहमति को आधार बनाया गया है।
यदि इस तरह की याचिका को छह से 18 महीने के भीतर वापस नहीं लिया जाता तो कोर्ट आपसी सहमति से तलाक की डिक्री दे सकता है। लेकिन, देखने में आया है कि जो दंपती आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दाखिल करते हैं उनमें कोई एक गायब हो जाता है और मामला लंबे समय तक अदालत में लटका रहता है। इससे तलाक चाहने वाले पक्ष को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। संसदीय समिति ने तलाक के लिए अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को खत्म करने का विरोध किया था।
इसे ध्यान में रखते हुए विधेयक में कहा गया है कि यह फैसला अदालत के पास होगा कि वह तलाक के लिए अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि का पालन करवाती है या नहीं।
राज्यसभा में यह विधेयक दो साल पहले पेश किया गया था। वहां से इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था। समिति के सुझावों को शामिल करते हुए विधेयक को फिर कैबिनेट के सामने पेश किया गया था। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इस विधेयक को पास कर दिया गया। अब यह विधेयक संसद में फिर से पेश किया जाएगा।-अदालत २३.०३.१२

15.3.12

माँ बाप की देखभाल नहीं तो पैतृक संपत्ति भी नहीं

Posted: 15 Mar 2012 10:31 AM PDT
सुप्रीम कोर्ट ने वसीयत से जुड़े एक अहम फैसले में कहा है कि मां-बाप अपनी कृतघ्न संतान को पारिवारिक संपत्ति से बेदखल कर सकते हैं। किसी वसीयत की विश्वसनीयता पर इस आधार पर संदेह नहीं किया जा सकता कि वसीयतकर्ता ने पारिवारिक संपत्ति में ‘कृतघ्न संतान’ को हिस्सा देने से मना कर दिया और सारी संपत्ति उस बेटे के नाम कर दी जिसने बूढ़े मां-बाप की मृत्युपर्यत देखभाल की।
जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का एक फैसला खारिज कर दिया। हाई कोर्ट ने वसीयतकर्ता हरिशंकर द्वारा दो बेटों विनोद कुमार और आनंद कुमार को दरकिनार कर तीसरे बेटे महेश कुमार के पक्ष में की गई वसीयत की प्रामाणिकता पर अविश्वास व्यक्त किया था।
जस्टिस सिंघवी ने फैसले में लिखा है, ‘संयुक्त पारिवारिक संपत्ति में अपना हिस्सा अपीलकर्ता को देने के हरिशंकर के फैसले में कुछ भी अप्राकृतिक या असामान्य नहीं है। सामान्य समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति ने यही रुख अपनाया होता और संपत्ति में अपने हिस्से से कृतघ्न संतान को कुछ भी नहीं देता।’
पीठ ने कहा कि इस केस में यह साबित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं कि हरिशंकर ने महेश कुमार के नाम वसीयत लिखी क्योंकि महेश ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बूढ़े मां-बाप की उनकी मौत तक देखभाल की। हरिशंकर की वसीयत में उन दो बेटों को कुछ भी नहीं मिला, जो पहले ही अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए थे। हाई कोर्ट द्वारा वसीयत पर संदेह जताए जाने के बाद महेश कुमार ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी।-अदालत १५.०३.१२

Followers