tag:blogger.com,1999:blog-61715194656197796952024-03-14T08:14:10.795+05:30Court-Kacheharee Aur Kanoon-कोर्ट-कचेहरी और कानूनउपयोगी विषयों पर प्रमुख अदालती निर्णय समाचार, कानून, लेख, समीक्षा!Unknownnoreply@blogger.comBlogger51125tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-45573530620683581852014-04-20T16:56:00.000+05:302014-04-20T16:56:14.385+05:30भारत में फलता-फूलता मुकदमेबाजी उद्योग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<blockquote class="tr_bq">
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<li><b>इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो।</b></li>
<li><b>“हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”-विलियम शेक्स्पेअर।</b></li>
<li><b>न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है।</b></li>
<li><b>विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत, 1992 में 85 प्रतिशत और 2011 में 93 थी।</b></li>
<li><b>जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है।</b></li>
<li><b>उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, .... जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं।</b></li>
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<b>मनीराम शर्मा, एडवोकेट</b></div>
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भारतीय न्यायातंत्र उर्फ मुकदमेबाजी उद्योग ने बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध करवा रखा है। देश में अर्द्ध–न्यायिक निकायों को छोड़कर 20,000 से ज्यादा न्यायाधीश, 2,50,000 से ज्यादा सहायक स्टाफ, 25,00,000 से ज्यादा वकील, 10,00,000 से ज्यादा मुंशी टाइपिस्ट, 23,00,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी इस व्यवसाय में नियोजित हैं और वैध–अवैध ढंग से जनता से धन ऐंठ रहे हैं। अर्द्ध-न्यायिक निकायों में भी समान संख्या और नियोजित है। फिर भी परिणाम और इन लोगों की नीयत लाचार जनता से छुपी हुई नहीं हैं। भारत में मुक़दमेबाजी उद्योग एक कुचक्र की तरह संचालित है, जिसमें सत्ता में शामिल सभी पक्षकार अपनी-अपनी भूमिका निसंकोच और निर्भीक होकर बखूबी निभा रहे हैं। प्राय: झगड़ों और विवादों का प्रायोजन अपने स्वर्थों के लिए या तो राजनेता स्वयं करते हैं या वे इनका पोषण करते हैं। अधिकाँश वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से चिपके रहते हैं और उनके माध्यम से वे अपना व्यवसाय प्राप्त करते हैं, क्योंकि विवाद के पश्चात पक्षकार सुलह–समाधान के लिए अक्सर राजनेताओं के पास जाते हैं और कालांतर में राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क वाले वकील ही न्यायाधीश बन पाते हैं। इस बात का खुलासा सिंघवी सीडी प्रकरण ने भी कर दिया है। इस प्रकरण ने यह भी दिखा दिया कि न्यायाधीश बनने के लिए आशार्थी को किन कठिन परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। भारत में किसी चयन प्रक्रिया में न्यायाधीशों या विपक्ष को भी शामिल करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जिस प्रक्रिया में जितने ज्यादा लोग शामिल होंगे; उसमें भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी लोग तुष्ट होने पर ही कार्यवाही आगे बढ़ पाएगी। यदि निर्णय प्रक्रिया में भागीदारों की संख्या बढाने या विपक्ष को शामिल करने से स्वच्छता आती तो हमें विधायिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती। इसलिए प्रक्रिया में जितना प्रसाद मिलेगा, उसका बँटवारा प्रत्येक भागीदार की मोलभाव शक्ति के अनुसार होगा और अंतत: यह बंदरबांट का रूप ले लेगी। कहने को चाहे संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते होंगे, किन्तु वास्तव में यह भी राजनीति की इच्छाशक्ति की सहमति से ही होता है। जहां राजनीति किसी नियुक्ति पर असहमत हो तो, देश में वकील और न्यायाधीश कोई संत पुरुष तो हैं नहीं, वे प्रस्तावित व्यक्ति के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच खोलकर उसकी नियुक्ति बाधित कर देते हैं। अन्यथा दागी के विरुद्ध किसी प्रतिकूल रिपोर्ट को भी नजर अंदाज कर दबा दिया जाता है। <b>विलियम शेक्स्पेअर</b> ने भी (हेनरी 4 भाग 2 नाट्य 4 दृश्य 2) में कहा है , <b>“हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”</b></div>
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वैसे भी भारत की राजनीति किसी दलदल से कम नहीं है और लगभग सभी नामी और वरिष्ठ वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, जिसमें दोनों का आपसी हित है और दोनों एक दूसरे का संरक्षण करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तो वैसे ही गोपनीय है और उसमें पारदर्शिता का नितांत अभाव है। न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है। अमेरिका में न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के समय उसकी पात्रता–बुद्धिमता, योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी आदि की कड़ी जांच होती है और प्रत्येक पद के लिए दो गुने प्रत्याशियों की सूची राज्यपाल को नियुक्ति हेतु सौंपी जाती है, जबकि भारत में ऐसा कदाचित नहीं होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों पर यौन शोषण के आरोप लगे और यह पाया गया कि उन्होंने शाराब का सेवन किया तथा पीड़ित महिला को भी इसके लिए प्रस्ताव रखा। इससे यह प्रामाणित होता है कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले रहे हैं, जिनमें सात्विक और सद्बुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से ऐसे चरित्रवान लोगो को इन गरिमामयी पदों पर नियुक्त करने में देश से भारी भूलें हुई हैं, चाहे उन्हें दण्डित किया जाता है या नहीं। न्यायाधीश होने के लिए मात्र विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह मन से सद्बुद्धि और सात्विक होना चाहिए। अन्यथा सद्चरित्र के अभाव में ऐसा पांडित्य तो रावण के समान चरित्र को ही प्रतिबिंबित कर सकता है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।</div>
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विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 1992 में 85 प्रतिशत हो गयी है। वहीं वर्ष 2011 में अमरीकी न्याय विभाग ने दोष सिद्धि की दर 93 प्रतिशत बतायी है। भारत में आपराधिक मामलों में पुलिस अनुसंधान में विलंब करती है, फिर भी दोष सिद्धियाँ मात्र 2 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती हैं। इसका एक संभावित कारण है कि पुलिस वास्तव में मामले की तह तक नहीं जाती, अपितु कुछ कहानियां गढ़ती है और झूठी कहानी गढ़ने में उसे समय लगना स्वाभाविक है। दोष सिद्धि की दर अमेरिकी राज्य न्यायालयों में भी पर्याप्त ऊँची है। रिपोर्ट के अनुसार यह टेक्सास में 84 प्रतिशत, कैलिफ़ोर्निया में 82 प्रतिशत, न्यूयॉर्क में 72 प्रतिशत उतरी कैलिफ़ोर्निया में 67 प्रतिशत और फ्लोरिडा में 59 प्रतिशत है। इंग्लॅण्ड के क्राउन कोर्ट्स में भी दोष सिद्धि की दर 80 प्रतिशत है। हांगकांग के सत्र न्यायालयों में 92 प्रतिशत, वेल्स के सत्र न्यायालयों में 80 प्रतिशत, कनाडा के समान न्यायालयों में 69 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया के न्यायालयों में 79 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धि जनता पर एक भार नहीं हैं? क्या इतना परिणाम यदि देश में बैंकिंग या अन्य उद्योग दें तो सरकार इसे बर्दास्त कर सकेगी? फिर न्यायतंत्र के ऐसे निराशाजनक परिणामों को सत्तासीन और विपक्ष दोनों क्योंकर बर्दास्त कर रहे हैं? इससे न्यायतंत्र के भी राजनैतिक उपयोग की बू आती है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वसूली हेतु दायर किये गए मामलों में भी, जहां पूरी तरह से सुरक्षित दस्तावेज बनाकर ऋण दिए जाते हैं, वसूली मात्र 2 प्रतिशत वार्षिक तक सीमित है, जबकि इनमें लागत 15 प्रतिशत आ रही है। देश की जनता को न्यायतंत्र की इतनी विफलता में क्रमश: न्यायपालिका, विधायिका, पुलिस व वकीलों के अलग-अलग योगदान को जानने का अधिकार है। </div>
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जहां तक नियुक्ति या निर्णयन की किसी प्रक्रिया में पक्ष-विपक्ष को शामिल करने का प्रश्न है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जो पक्ष आज सता में है-कल विपक्ष में हो सकता है और ठीक इसके विपरीत भी। अत: इन दोनों समूहों में वास्तव में आपस में कोई संघर्ष-टकराव नहीं होता है, जो भी संघर्ष होता है-वह मात्र सस्ती लोकप्रियता व वोट बटोरने और जनता को मूर्ख बनाने के लिए होता है। यद्यपि प्रजातंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, अपितु यह तो जनता की सक्रिय भागीदारी से संचालित शासन व्यवस्था का नाम है। जनतंत्र में न तो जनता जनप्रतिनिधियों के बंधक है और न ही जनतंत्र किसी अन्य द्वारा निर्देशित कोई व्यवस्था का नाम है। न्यायाधिपति सौमित्र सेन पर महाभियोग का असामयिक पटाक्षेप और राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भल्ला द्वारा अपर सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को देश की जनता देख ही चुकी है, जहां मात्र अनुचित नियुक्तियों को निरस्त ही किया गया और किसी दोषी के गिरेबान तक कानून का हाथ नहीं पहुँच सका। जिससे यह प्रमाणित है कि जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति हेतु आशार्थियों की सूची को पहले सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि अवांछनीय और अपराधी लोग इस पवित्र व्यवसाय में अतिक्रमण नहीं कर सकें। वर्तमान में तो इस व्यवसाय के संचालन में न्याय-तंत्र का अनुचित महिमामंडन करने वाले वकील, उनके सहायक, न्यायाधीश और पुलिस ही टिक पा रहे हैं।</div>
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हाल ही में उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश की पदस्थापना के लिए यह नीति बनायी गयी कि मुख्य न्यायाधीश किसी बाहरी राज्य का हो, किन्तु यह नीति न तो उचित है और न ही व्यावहारिक है। न्यायाधीश पूर्व वकील होते हैं और वे राजनीति के गहरे रंग में रंगे होते हैं। इस वास्तविकता की ओर आँखें नहीं मूंदी जा सकती। अत: देशी राज्य के वकीलों का ध्रुवीकरण हो जाता है और बाहरी राज्य का अकेला मुख्य न्यायाधीश अलग थलग पड़ जाता है तथा वह चाहकर भी कोई सुधार का कार्य हाथ में नहीं ले पाता, क्योंकि संवैधानिक न्यायालयों में प्रशासनिक निर्णय समूह द्वारा लिए जाते हैं। वैसे भी यह नीति देश की न्यायपालिका में स्वच्छता व गतिशीलता रखने और स्थानान्तरण की सुविचारित नीति के विरूद्ध है। जहां एक ओर सत्र न्यायाधीशों के लिए समस्त भारतीय स्तर की सेवा की पैरवी की जाती है, वहीं उच्च न्यायालयों के स्तर के न्यायाधीशों के लिए इस तरह की नीति के विषय में कोई विचार तक नहीं किया जा रहा है, जिससे न्यायिक उपक्रमों में स्वच्छता लाने की मूल इच्छा शक्ति पर ही संदेह होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालयों द्वारा आवश्यकता होने पर पुलिस केस डायरी मंगवाई जाती है, किन्तु उसे बिना न्यायालय के आदेश के ही लौटा दिया जाता है। जिससे यह सन्देश जाता है कि न्यायालय और पुलिस हाथ से हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हैं न कि वे स्वतंत्र हैं। क्या न्यायालय एक आम नागरिक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को भी बिना न्यायिक आदेश के लौटा देते हैं? केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार राज्य के महाधिवक्ता द्वारा प्रकरणों में तैयार होकर न आने पर न्यायालय से ही वाक आउट कर दिया, बजाय इसके कि कार्यवाही को आगे बढ़ाते अथवा महाधिवक्ता पर समुचित कार्यवाही करते अर्थात जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। भारत का आम नागरिक तो न्यायालयों में चलने वाले पैंतरों, दांव-पेंचों आदि से परिचित नहीं हैं, किन्तु देश के वकीलों को ज्ञान है कि देश में कानून या संविधान का अस्तित्व संदिग्ध है। अत: वे अपनी परिवेदनाओं और मांगों के लिए दबाव बनाने हेतु धरनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, विरोधों आदि का सहारा लेते हैं। आखिर पापी पेट का सवाल है। कदाचित उन्हें सम्यक न्यायिक उपचार उपलब्ध होते तो वे ऐसा रास्ता नहीं अपनाते। सामान्यतया न्यायार्थी जब वकील के पास जाता है तो उसके द्वारा मांगी जानी वाली आधी राहतों के विषय में तो उसे बताया जाता है कि ये कानून में उपलब्ध नहीं हैं और शेष में से अधिकाँश देने की परम्परा नहीं है अथवा साहब देते नहीं हैं।</div>
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पारदर्शिता और भ्रष्टाचार में कोई मेलजोल नहीं होता है, इस कारण न्यायालयों एवं पुलिस का स्टाफ अपने कार्यों में कभी पारदर्शिता नहीं लाना चाहता है। देश के 20,000 न्यायालयों के कम्प्यूटरीकरण की ईकोर्ट प्रक्रिया 1990 में प्रारंभ हुई थी और यह आज तक 20 उच्च न्यायालयों के स्तर तक भी पूर्ण नहीं हो सकी है। दूसरी ओर देखें तो देश की लगभग 1,00,000 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य 10 वर्ष में पूर्ण हो गया। इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की कम्प्यूटरीकरण में अरुचि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है जो माननीय कहे जाने वाले न्यायाधीशों के सानिध्य में ही संचालित हैं। देश के न्यायालयों में सुनवाई पूर्ण होने की के बाद भी निर्णय घोषित नहीं किये जाते तथा ऐसे भी मामले प्रकाश में आये हैं, जहां पक्षकारों से न्यायाधीशों ने मोलभाव किया और निर्णय जारी करने में 6 माह तक का असामान्य विलम्ब किया। वैसे भी निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के 5-6 दिन बाद ही घोषित करना एक सामान्य बात है। कई बार पीड़ित पक्षकार को अपील के अधिकार से वंचित करने के लिए निर्णय पीछे की तिथि में जारी करके भी न्यायाधीश पक्षकार को उपकृत करते हैं। जबकि अमेरिका में निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के बाद निश्चित दिन ही जारी किया जाता है और उसे अविलम्ब इन्टरनेट पर उपलब्ध करवा दिया जाता है। अपने अहम की संतुष्टि और शक्ति के बेजा प्रदर्शन के लिए संवैधानिक न्यायालय कई बार भारी खर्चे भी लगाते हैं, जबकि इसके लिए उन्होंने ऐसे कोई नियम नहीं बना रखे हैं, क्योंकि नियम बनाने की उन्हें कोई स्वतंत्र शक्तियां प्राप्त भी नहीं हैं। एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 40 लाख रुपये खर्चा लगाया जो उच्चतम न्यायालय ने घटाकर मात्र 25 हजार रुपये कर दिया। इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोग निष्पक्ष की बजाय पूर्वाग्रहों पर आधारित होते हैं व देश की अस्वच्छ राजनीति की ही भांति उनका आपसी गठबंधन व गुप्त समझौता होता है और समय पर एक दूसरे के काम आते हैं। अत: निर्णय चाहे एक सदस्यीय पीठ दे या बहु सदस्यीय पीठ दे, उसकी गुणवता में कोई ज्यादा अंतर नहीं आता है। न्यायालयों द्वारा कई बार नागरिकों पर भयावह खर्चे लगाए जाते हैं, जबकि खर्चे शब्द का शाब्दिक अर्थ लागत की पूर्ति करना होता है और उसमें दंड शामिल नहीं है व लागत की गणना भी किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार न्यायालय पक्षकारों से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर किसी कानून के अंतर्गत दंड लगाया जाना हो तो संविधान के अनुसार उसे उचित सुनवाई का अवसर देकर ही ऐसा किया जा सकता है, किन्तु वकील ऐसे अवसरों पर मौन रहकर अपने पक्षकार का अहित करते हैं। </div>
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वकालत का पेशा भी कितना विश्वसनीय है, इसकी बानगी हम इस बात से देख सकते हैं कि परिवार न्यायालयों, श्रम आयुक्तों, (कुछ राज्यों में) सूचना आयुक्तों आदि के यहाँ वकील के माध्यम से प्रतिनिधित्व अनुमत नहीं है अर्थात इन मंचों में वकीलों को न्याय पथ में बाधक माना गया है। फिर वकील अन्य मंचों पर साधक किस प्रकार हो सकते हैं? उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, यह तथ्य भी कई बार सामने आया है। जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं, जिससे उपरोक्त अवधारणा की फिर पुष्टि होती है।</div>
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देश में आतंकवादी गतिविधियाँ भी प्रशासन, पुलिस और राजनीति के सहयोग और समर्थन के बिना संचालित नहीं होती हैं। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी परिवहन, व्यापार आदि चलते रहते हैं, जो कि पुलिस और आतंकवादियों व संगठित अपराधियों दोनों को प्रोटेक्शन मनी देने पर ही संभव है। वैसे भी इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो। पुलिस के भ्रष्टाचार का अक्सर यह कहकर बचाव किया जाता है कि उन्हें उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। अत: कार्य सही नहीं किया गया, किन्तु रिश्वत लेने का भी तो उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता फिर वे इसके लिए किस प्रकार रास्ता निकाल लेते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति को गृहस्थी के संचालन का भी प्रारम्भ में कोई अनुभव नहीं होता, किन्तु अवसर मिलने पर वह आवश्यकतानुसार सब कुछ सीख लेता है। देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गिरफ्तारियां होती हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत अनावश्यक होती हैं। ये गिरफ्तारियां भी बिना किसी अस्वच्छ उद्देश्य के नहीं होती हैं, क्योंकि राजसत्ता में भागीदार पुलिस, अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारी आदि को इस बात का विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें, उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है और देश में वास्तव में ऐसा कोई मंच नहीं है जो प्रत्येक शक्ति-संपन्न व सत्तासीन दोषी को दण्डित कर सके। जहां कहीं भी अपवाद स्वरूप किसी पुलिसवाले के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती है, वह तो मात्र नाक बचाने और जनता को भ्रमित करने के लिए होती है। यदि पुलिस द्वारा किसी मामले में गिरफ्तारी न्यायोचित हो तो वे, घटना समय के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों में, गिरफ्तारी हेतु मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु न तो ऐसा किया जाता है और न ही देश का न्याय तंत्र ऐसी कोई आवश्यकता समझता है और न ही कोई वकील अपने मुवक्किल के लिए कभी मांग करता देखा गया है। यदि न्यायपालिका पुलिस द्वारा अनुसंधान में के मनमानेपन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जिससे मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धियाँ हासिल हो रही हों, तो फिर उसे दूसरे नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित करने का नैतिक अधिकार किस प्रकार प्राप्त हो जाता है?</div>
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डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-15148718171702732902014-03-30T17:48:00.002+05:302014-03-30T17:56:38.423+05:30भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="text-align: start;">भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....</span></div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-wiOjQxBl_qA/UOLSat5pDDI/AAAAAAAABMU/qacd2BQSVII/s1600/02-05-09-141750+%282%29yughv.jpg"><br /></a></div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-wiOjQxBl_qA/UOLSat5pDDI/AAAAAAAABMU/qacd2BQSVII/s1600/02-05-09-141750+%282%29yughv.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-wiOjQxBl_qA/UOLSat5pDDI/AAAAAAAABMU/qacd2BQSVII/s640/02-05-09-141750+%282%29yughv.jpg" /></a></div>
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धारा - 498 (क) भारतीय दंड संहिता निम्न प्रकार है –</div>
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“किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उस के प्रति क्रूरता करना – जो कोई किसी स्त्री का पति या पति के नातेदार होते हुए, ऐसे स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा|”</div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-h1cHx1_2fuI/UOLYLoyfayI/AAAAAAAABNM/baYDZFEuODs/s1600/Marriage-Records.jpg"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-h1cHx1_2fuI/UOLYLoyfayI/AAAAAAAABNM/baYDZFEuODs/s320/Marriage-Records.jpg" /></a></div>
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संबद्ध विषय : इससे संबधित विषय निम्न हैं –</div>
<div style="text-align: justify;">
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1- विवाह की संस्था,</div>
<div style="text-align: justify;">
2- विवाह की वैधानिक स्थिति,</div>
<div style="text-align: justify;">
3- विवाह में स्त्रीधन या दहेज की प्रथा (सामाजिक),</div>
<div style="text-align: justify;">
4 -विवाहोपरांत स्त्रीधन की माँग लेकर स्त्री की प्रति अव्यवहार,</div>
<div style="text-align: justify;">
5 -पति – पत्नी के आपसी सम्बन्ध पर असर,</div>
<div style="text-align: justify;">
6 -मतभेद झेल रहे / अत्याचार के साक्षी परिवार में बच्चों पर असर,</div>
<div style="text-align: justify;">
7 -पति या प्रतिपक्ष के द्वारा स्त्री के प्रति अपराधिक कार्रवाई,</div>
<div style="text-align: justify;">
8 -स्त्री के मानवधिकारों का पति या प्रतिपक्ष द्वारा हनन|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पृष्ठभूमि : दहेज प्रथा वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक कार्यवाही है जो विवाह के समय कन्या पक्ष की ओर से दी जाने वाली एक दान राशि है| यह राशि किसी भी रूप में हो सकती है – नकदी, वाहन, घर-मकान, जेवरात इत्यादि| जो कन्या के माता पिता स्वैच्छिक रूप से वर पक्ष को देते हैं| लेकिन कालांतर में यह स्वैच्छिक दान वर पक्ष की ओर से जोर-जबरदस्ती से उगाही करने वाला स्रोत बन गया| जिसका परिणाम यह हुआ कन्या को दहेज के लिए उत्पीड़ित किया जाने लगा| और कई मामलों में यह उत्पीडन से बढ़कर दहेज हत्या तक पहुँच गया| इन सामाजिक बुराइयों और अपराधों के हेतु कानून बनाये गए हैं|</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतीय दंड संहिता की ‘धारा 498-क’ निर्ममता तथा दहेज के लिए उत्पीड़न, ‘धारा 304-ख’ इससे होने वाली मृत्यु और ‘धारा 496’ उत्पीड़न से तंग आकार महिलाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली घटनाओं से निपटने के हेतु कानून बनाए गए| 2005 में बने ‘घरेलू हिंसा कानून’ को भी इसी से जोड़ कर देखा जाने लगा| लेकिन इन सभी कानूनों ने मिलकर स्त्री और मायके पक्ष को इतनी अधिक शक्ति दे दी कि अब इनका दुरुपयोग किया जाने लगा| स्थिति ऐसी बनी कि अब वधू पक्ष के बजाय वर पक्ष को अनेक तरह से सताया जाने लगा| अतः आज पीड़ित वर पक्ष के ओर से इसे बदलने की माँग की जाने लगी है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-RB5YnipRuJc/UOLXt9L5OlI/AAAAAAAABNE/r9NRtw62-p0/s1600/dowry_no1.jpg"><img border="0" src="https://2.bp.blogspot.com/-RB5YnipRuJc/UOLXt9L5OlI/AAAAAAAABNE/r9NRtw62-p0/s320/dowry_no1.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दहेज उत्पीड़न व दहेज हत्या : विवाह और हत्या दोनों अलग अलग बिन्दु है| उत्पीड़न में पीड़ित व्यक्ति जीवित रहता है और अपनी बचाव की गुहार करता है| जबकि हत्या में पीड़ित व्यक्ति ही मृत हो जाता है| कानून भी दोनों के लिए अलग-अलग दंड देता है| उत्पीड़न से जुड़ा होने पर कानून ‘धारा 498-क’ तथा ‘घरेलू हिंसा अधिनियम’ के तहत कार्यवाई करता है जबकि हत्या में ‘धारा 304-ख, 307’ के तहत कार्य करता है| अतः यह स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे से जुड़े होने के बावजूद भी एक निश्चित स्तर पर पहुँच कर दोनों अलग-अलग हो जाते हैं|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दहेज उत्पीड़न - प्रकार :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- शारीरिक (मारपीट करना, खाने को ना देना बिना सहमति के शारीरिक सम्बन्ध बनाना आदि)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- मानसिक (गालीगलौच करना, अपशब्द कहना, ताने मारना, अभद्र व्यहार करना आदि)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- सामाजिक (सामाजिक साख के विरुद्ध कार्य करना या समाज में अपमानित करना आदि)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4- आर्थिक (नकद, चल-अचल संपत्ति, जेवरात छीन लेना आदि)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-V7KCOTHoQP8/UOLs5HSr5vI/AAAAAAAABOs/U_uF5v846RY/s1600/Stand_Up_Against_Social_Evils.jpg"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-V7KCOTHoQP8/UOLs5HSr5vI/AAAAAAAABOs/U_uF5v846RY/s320/Stand_Up_Against_Social_Evils.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दहेज उत्पीड़न : अपराध या सामाजिक समस्या ?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दहेज उत्पीड़न अपराध है या सामाजिक समस्या, इसके बीच बहुत ही सूक्ष्म अंतर है| वह अंतर यह है कि दहेज कारक है उत्पीड़न का| और दहेज को सामाजिक मान्यता मिली हुई है| इस स्थिति में दहेज एक सामाजिक समस्या है| लेकिन जब यह दहेज की प्रथा उत्पीड़न तक पहुँच जाती है और यदाकदा हत्या तक, तब यह अपराध बन जाती है| जिसे ना समाज स्वीकार करता है ना ही कानून|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सामाजिक समस्याओं (Social Evil) के उपचार में कानून की भूमिका : दहेज कोई पहली सामाजिक समस्या नहीं है जो उभर कर सामने आई है इससे पहले भी सम्स्याएं रहीं है जिनका उपचार कहीं समाज में बदलाव से कहीं कानून बना कर रोक लगाये जाने समाप्त हुई हैं जैसे –</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सती प्रथा का उपचार – इसमें कानून आगे चला और समाज पीछे</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बाल विवाह का उपचार – इसमें समाज आगे रहा और कानून पीछे</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-XxhY0cJxgPY/UOLV6ASZIYI/AAAAAAAABM0/1AWBsnfBj6s/s1600/grudge_against_society.jpg"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-XxhY0cJxgPY/UOLV6ASZIYI/AAAAAAAABM0/1AWBsnfBj6s/s320/grudge_against_society.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समाज में सती प्रथा के अंत में कानून का मुख्य भूमिका रही है| यह सीधे सीधे व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को ही छीन लेता था| जिसे कानून के भय और सामाजिक जागरूकता से रोका गया| वहीँ बाल विवाह में समाज के पारिस्थितिक ढांचागत बदलाव (शिक्षा, कैरियर, नौकरी आदि) के कारण बहुत बड़ा परिवर्तन आया| साथ ही साथ कानून ने इस परिवर्तन को और अधिक बल दिया| जबकि दहेज की समाज में स्वीकार्यता है इसलिए समाज द्वारा स्वीकार्य होने के कारण इसमें कोई भीषण बदलाव की गुंजाइश नहीं बचती है| (आज तक की लम्बी अवधि गुजरना इसका एक प्रमाण है) और वहीँ कानून भी दहेज को रोकने में अक्षम साबित होता है| क्योंकि दहेज एक ऐसा दान है जो स्वैच्छिक है| अतः दान पर पाबन्दी नहीं लगाई जा सकती है| और दहेज कोई एकमेव कारण नहीं है जिसके कारण उत्पीड़न होता है, इसके अन्य कारण भी है| अतः उपचार की आवश्यकता विवाहोपरांत उत्पीड़न में है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-VcKOc2jPSxg/UOLUQUqcFeI/AAAAAAAABMk/_5xjk8mSZgU/s1600/two-same-pieces-of-puzzle-that-do-not-fit-thumb8381271.jpg"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-VcKOc2jPSxg/UOLUQUqcFeI/AAAAAAAABMk/_5xjk8mSZgU/s320/two-same-pieces-of-puzzle-that-do-not-fit-thumb8381271.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
परिदृश्य परिवर्तन : विवाहोपरांत उत्पीड़न कारण – </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- बेमेल विवाह (यह उम्र, शैक्षणिक योग्यता, मानसिक स्तर, परिवारक स्तर, आर्थिक स्तर आदि तमाम रुपों में देखा जा सकता है|)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- स्त्री पुरुष कि पारस्परिक इच्छा के विरूद्ध शादी (आज के समय में अपने भविष्य को लेकर चाहे पुरुष हो या स्त्री सभी सचेत रह कर निर्णय लेना चाहते हैं परन्तु पारिवारिक दबाव में आकार वह विवाह अवश्य कर लेते है लेकिन वह चल नहीं पाते हैं|)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- स्त्री की विशेष सामाजिक स्थिति (स्त्री दो परिवारों से जुड़ी होती है उसके माध्यम से उसके परिवारों को ब्लैकमेल कर सकते हैं या उसमे कम अभिरूची रखने वाला पक्ष दूसरे पक्ष को ब्लैकमेल कर सकता है|)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4- दहेज के लालच में किये गए बेमेल विवाह (अभी भी सामा- जिक मानसिकता यह है कि यदि वर पक्ष के पास घर है, पैसा है, प्रतिष्ठा है - तो विवाह कर दिए जाते हैं यह बात वधू पक्ष पर खास तौर से लागू होती है|)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
5- दांपत्य जीवन में व्यभिचार संदेह की स्थिति (आज के खुले समाज में यह संदेह या शक की सुइयां दोनों ही तरफ बराबर प्रहार करती हैं)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उपचार की आवश्यकता :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- विवाह में स्त्री पुरुष की आपसी सहमति होनी आवश्यक है| जो पारिवारिक या किसी अन्य दबाव रहित हो| क्योंकि अंतिम रूप से वही दोनों इस बंधन को निभाते हैं|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- उपर्युक्त बिन्दु का पालन किया जाये तो बेमेल विवाह की समस्या स्वयं ही समाप्त हो जायेगी|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- स्त्री की समाज में विशेष स्थिति होती है जबकि पुरुष एक परिवार में जन्म लेता है और वहीँ रहता है| स्त्री अपने जन्म घर को छोड़कर पुरुष के घर आती है| यदि वहीँ पुरुष घर छोड़ कर स्त्री के घर जाये तो उसकी भी कमोबेश यही स्थिति होगी| या फिर स्त्री के असल माँ बाप और भाई, स्त्री को उसके वैवाहिक घर से अलग कर के रखना चाहे तो क्या उस स्थिति में पुरुष और उसके बच्चे पीड़ित नहीं होंगे| अतः इस सामाजिक ढांचागत स्थिति विशेष में कोई विशेष उपचार का कोई विकल्प नहीं है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4- साथ ही साथ समाज में यह जागरूकता भी लाने की कोशिश करनी होगी कि पैसा, पद, प्रतिष्ठा आदि ही सुख का आधार नह बनते हैं| क्योंकि यह सभी जड़ चीजें हैं हमें व्यक्ति विशेष पर जोर देना चाहिये ना कि उसके मान-सम्मान, धन-दौलत की|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
5- इन सब के साथ ही व्यक्ति को अपने चारित्रिक नैतिकता को भी बचा कर रखना चाहिये| ताकि इस खुले समाज का असर उनके व्यक्तिगत जीवन पर ना पड़े|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उपचार योग्य बिन्दु :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- विवाह की संस्था -</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
a. क़ानूनी विवाह</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
b. सामाजिक विवाह</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
c. प्रेम विवाह</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
d. लिव इन रिलेशनशिप</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- विवाह की क़ानूनी मान्यता -</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- विवाह विच्छेद की परिस्थितयां -</div>
<div style="text-align: justify;">
a. संतान हीन दम्पति</div>
<div style="text-align: justify;">
b. संतान युक्त दंपत्ति</div>
<div style="text-align: justify;">
4- उत्पीड़न का क़ानूनी समाधान</div>
<div style="text-align: justify;">
5- दोषी की पहचान और दंड के नियम</div>
<div style="text-align: justify;">
6- पीड़ित की पहचान और न्याय</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सुझाव :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- संस्था से जुड़े सुझाव -</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-o5qSkBvqM8I/UOLYw4a651I/AAAAAAAABNU/GQu81eY9fjI/s1600/dowry1-430x244.jpg"><img border="0" src="https://3.bp.blogspot.com/-o5qSkBvqM8I/UOLYw4a651I/AAAAAAAABNU/GQu81eY9fjI/s320/dowry1-430x244.jpg" /></a> </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
a. क़ानूनी विवाह समाज व व्यक्ति द्वारा लिया गया जागरूक निर्णय है| कानून जिस सम्बन्ध का साक्षी होता है उसके उपचार का भी दायित्व कानू का है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
b. सामाजिक विवाह समाज की स्वीकृति का परिणाम है और समाज कानून का मुखोपेक्षी नहीं है, यदि उसका कृत्य अपराध के दायरे से बाहर है| इस स्थिति में दंपत्ति ने समाज के विश्वास पर आपसी निर्णय लिया होता है| इस स्थिति में उपचार का दायित्व समाज पर है, शर्त यह है कि उसका उपचार विधि विरुद्ध ना हो|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
c. प्रेम विवाह व लिव इन व्यक्ति की चरम स्वतंत्रता से लिए गए निर्णय है, इस स्थिति में उपचार आपसी सहमति से हो सकता है| सहमति की अनुपस्थिति में क़ानूनी विवाह के नियम माने जाने चाहिये|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
d. क़ानूनी विवाह से इतर व्यवस्थाओं में बच्चों का भविष्य असुरक्षित होता है| जिसके प्रतिवाद में वे अक्षम होते हैं| अतः न्याय सुनिश्चित करने के लिए किसी भी प्रकार के विवाह की स्थिति में प्रसव के समय विवाह का निबंधन अनिवार्य है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-iTUwCl4zy0M/UOLZBVlUZyI/AAAAAAAABNc/4Z68U-rgV4g/s1600/06_08_2012-6court.jpg"><img border="0" src="https://3.bp.blogspot.com/-iTUwCl4zy0M/UOLZBVlUZyI/AAAAAAAABNc/4Z68U-rgV4g/s320/06_08_2012-6court.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- क़ानूनी मान्यता से जुड़े सुझाव -</div>
<div style="text-align: justify;">
a. कानून केवल उन्ही परिवारों को मान्यता देगा जो क़ानूनी प्रक्रिया के अनुसार हुए है|</div>
<div style="text-align: justify;">
b. बच्चे के जन्मोंपरांत हर विवाह अनिवार्य रूप से क़ानूनी मान्यता प्राप्त होगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
c. संतानहीन विवाह की स्थिति में सामाजिक, प्रेम विवाह, लिव इन क़ानूनी हस्तक्षेप से मुक्त होंगे व कानून की दृष्टि में वादों का निपटारा अन्य अपराधों के अन्तर्गत होगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-TeUFjmYLDHg/UOLeIxG_I2I/AAAAAAAABN8/KriDrodVnks/s1600/divorce-photo.jpg"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-TeUFjmYLDHg/UOLeIxG_I2I/AAAAAAAABN8/KriDrodVnks/s320/divorce-photo.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- विवाह विच्छेद से जुड़े सुझाव -</div>
<div style="text-align: justify;">
a. विच्छेद की प्रक्रिया को अत्यंत सरल व त्वरित होना चाहिये|</div>
<div style="text-align: justify;">
b. विच्छेद पूर्व योग्य परामर्शदाता से सीमित व समयबद्ध व्यवस्था की जा सकती है|</div>
<div style="text-align: justify;">
c. संतान हीन दम्पति का विच्छेद</div>
<div style="text-align: justify;">
i- यदि दम्पति की कभी कोई संतान नही रही है, तो यथावत विच्छेद स्वीकृत हो जायेगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
d. यदि दम्पति संतानयुक्त है, या उनकी कभी कोई संतान रही है, तो विच्छेद की स्वीकृति दम्पति के क्रमानुसार नसबंदी व बंध्याकरण की शर्त के अधीन होगा| यह नसबंदी या बंध्याकरण ज्ञात चिकित्सकीय उपायों के तहत अंतिम व सताई होना चाहिये|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-16u8NzdkVRQ/UOLcJrR8VqI/AAAAAAAABNs/Guxu5Hzo_VU/s1600/21-dowry-300.jpg"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-16u8NzdkVRQ/UOLcJrR8VqI/AAAAAAAABNs/Guxu5Hzo_VU/s320/21-dowry-300.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4- उत्पीड़न की स्थिति में सुझाव –</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
a. किसी विशेष क़ानूनी उपचार की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है|</div>
<div style="text-align: justify;">
b. तीन से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|</div>
<div style="text-align: justify;">
c. यदि विच्छेद अनिवार्य किया जा रहा है तो वैसी स्थिति में उत्पीड़क के द्वारा उत्पीड़ित को यथोचित मुआवजा दिया जा सकता है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/--J1tTWkpQV0/UOLf6VA1OuI/AAAAAAAABOM/_u7c0QRYmt8/s1600/images.jpg"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/--J1tTWkpQV0/UOLf6VA1OuI/AAAAAAAABOM/_u7c0QRYmt8/s320/images.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
5- दोषी की उचित पहचान- उक्त व्यवस्था से दोषी की उचित पहचान की जा सकेगी तथा दंड के नियम भी समाज को अपराध से विरत कर सकेंगे| पीड़ित के रूप में उत्पीड़ित के महिला या पुरुष ही नहीं, बच्चे का महत्वपूर्ण स्थान है और इस शास्ति से उसे सर्वाधिक उचित न्याय दिया जा सकेगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संभावित परिणाम :</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1- इसके संभावित परिणामों में सर्वप्रथम विवाह के पंजीकरण में वृद्धि होगी| समाज सुरक्षा के लिए क़ानूनी विवाह को अपनाएगा| साथ ही बच्चे के जन्म के समय विवाह के निबंधन की अनिवार्यता होने से पहले हुए विवाहों का पंजीकरण हो जायेगा| यह वैवाहिक सुरक्षा ‘pull’ और बच्चे के जन्म के समय अनिवार्यता ‘push’ का काम करेगी|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
2- न्यायोचित तरीके से जनसंख्या में कमी की जा सकेगी| क्योंकि यदि कोई विवाह विच्छेद करता है तो वह संतानोत्पत्ति में अक्षम होगा| इससे उनकी विवाह पूर्ण संतान को पूर्ण हक़ मिलता रहेगा| क्योंकि अंतिम रूप से वही उनकी संतान रहेगी|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
3- इस सब में व्यक्ति में जिम्मेदारी की भावना का विकास होगा| और वह अपने परिवार को भय से सही लेकिन तवज्जो देगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4- तलाक के मामले में आरंभिक वृद्धि होगी जबकि बाद के समय में कमी आएगी| साथ ही वैवाहिक जीवन के प्रति रूढ़ नजरिये में भी बदलाव आएगा|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
5- उत्पीड़न की स्थितियों में कमी आएगी| क्योंकि तीन बार से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
6- इस सब के साथ इसमें सामाजिक सहमतियाँ भी बनाई जा सकती है| जैसे तीन बार से अधिक बार उत्पीडन पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है| यह मुस्लिम समुदाय में प्रचलित ‘तीन तलाक’ के रिवाज की क़ानूनी अनुकृति है| इस कानून में मुस्लिम समुदाय अपने कानूनों की छाया देखेगा – अतः वह इसे स्वीकार करेगा| वहीँ हिंदुओं में विवाह की संस्था में विच्छेद का कोई प्रावधान ही नहीं है| अतः कठिनतम स्वीकृति के कारण वह भी इसे अपनायेगा| वहीँ ईसाई इसे व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता के रूप में देखेंगे और वह भी इस कानून को अपनी सहमति देंगे|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
7- साथ ही इस सबके बाद भी कुछ मुद्दों पर इसका विरोध होगा, जैसे नसबंदी का मुद्दा| लेकिन यह विरोध सभी धर्मों से बराबर आएगा| अतः इसे जागरूकता के साथ और व्यावहारिक स्तर पर जनता के सामने लाना होगा| साथ ही यह भी याद रखना होगा कि सभी बदलाव लाने वाले नाए कानूनों का विरोध होता रहा है लेकिन उनका पालन करके समाज ने सुकून ही महसूस किया है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
8- इसके साथ ही इससे सामाजिक चिंतन में एक बदलाव की प्रक्रिया भी आरम्भ होगी|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संभावित परिणामों को इतने कम में आंकना परिणामों के प्रति उदासीनता होगी, अतः कहा जा सकता है इस बदलाव के बहुमुखी परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
(राज्य सभा, श्री भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता वाली समिति को भारतीय दंड सहिंता, 1860 की 'धारा 498-क' में संशोधन हेतु भेजे गए सुझाव|)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्त्रोत : <a href="http://nithallekimazlis.blogspot.in/2010/12/1860-498.html">निठल्ले की मज़लिस</a></div>
</div>
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<div style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;">
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महिला द्वारा पति व ससुराल पर अत्याचार का झूठा मामला बन सकता है तलाक का आधार : हाई कोर्ट</div>
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बम्बई उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि किसी महिला द्वारा अपने पति तथाससुराल के लोगों पर अत्याचार का झूठा मामलादर्ज कराना भी तलाक का आधार बन सकता है।अदालत की पीठ ने हाल में एक मामले में तलाक मंजूर करते हुए कहा हमारी नजर में एक झूठे मामले में पतिऔर उसके परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी से हुई उनकी बेइज्जती और तकलीफ मानसिक प्रताड़नादेने के समान है और पति सिर्फ इसी आधार परतलाक की माँग कर सकता है।</div>
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न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी देशपांडे तथा न्यायमूर्ति आरपी सोंदुरबलदोता की पीठ ने पारिवारिक अदालत के उस फैसले से असहमति जाहिर की, जिसमें पत्नी द्वारा पति तथा उसके परिजनों के खिलाफ एक शिकायत दर्ज करवाना उस महिला के गलत आरोप लगाने की आदत की तरफ इशारा नहीं करता।</div>
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पीठ ने कहा हम पारिवारिक अदालत की उस मान्यता सम्बन्धी तर्क को नहीं समझ पा रहे हैं कि सिर्फ एक शिकायत के आधार पर पति और उसके परिवार के लोगों की गिरफ्तारी से उन्हें हुई शर्मिंदगी और पीड़ा को मानसिक प्रताड़ना नहीं माना जा सकता। यह बेबुनियाद बात है किमानसिक प्रताड़ना के लिए एक से ज्यादा शिकायतें दर्ज होना जरूरी है।</div>
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यह मामला आठ मार्च 2001 को वैवाहिक बंधन में बँधे पुणे के एक दम्पति से जुड़ा है। पति ने आरोप लगाया था कि शादी की रात से ही उसकी पत्नी ने यह कहना शुरू कर दिया था कि उसके साथ छल हुआ है, क्योंकि उसे विश्वास दिलाया गया था कि वह मोटी तनख्वाह पाता है। पति का आरोप है कि उसकी पत्नी ने उसके तथा अपनी सास के खिलाफ क्रूरता का मुकदमा दायर किया था। बहरहाल, निचली अदालत ने सुबूतों के अभाव में दोनों लोगों को आरोपों से बरी कर दिया था।</div>
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<br /></div>
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उसके बाद पति ने पारिवारिक अदालत में तलाक की अर्जी दी थी, लेकिन उस अदालत ने कहा कि पत्नी द्वारा एकमात्र शिकायत दर्ज कराने का यह मतलब नहीं है कि उसे झूठे मामले दायर कराने की आदत है। अदालत ने कहा था कि महज इस आधार पर तलाक नहीं लिया जा सकता। बहरहाल, बाद में उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले से असहमति जाहिर की।-अदालत</div>
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</div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-25019339556273870562012-05-07T19:48:00.001+05:302012-05-07T19:48:17.156+05:30‘पत्नी द्वारा कंडोम के इस्तेमाल पर जोर देना मानसिक प्रताड़ना नहीं’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;">‘पत्नी द्वारा कंडोम के इस्तेमाल पर जोर देना मानसिक प्रताड़ना नहीं’</span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
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बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक व्यक्ति को इस आधार पर तलाक देने से मना कर दिया है कि उसकी पत्नी सेक्स के दौरानकंडोम के इस्तेमाल पर जोर देती है और इससे उसे मानसिक प्रताड़ना होती है।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
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जस्टिस पी बी मजूमदार और जस्टिस अनूप मोहता की पीठ ने प्रदीप बापट (30) की तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया । बापट ने कहा था कि पत्नी उसके साथ तब तक शारीरिक संबंध नहीं बनाती जब तक वह कंडोम नहीं पहन लेता। उसने अदालत से यह भी कहा कि पत्नी ने यह कह कर बच्चा पैदा करने से इंकार कर दिया कि उनकी माली हालत ठीक नहीं है इसलिए वे बच्चे का बोझ नहीं उठा सकते।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
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अदालत ने कहा कि यह आपसी सहमति से होने वाला फैसला है और इसमें पति जोर जबरदस्ती नहीं कर सकता। अदालत ने प्रदीप की तलाक मांगने के लिए यह दलीलें भी अस्वीकार कर दीं कि पत्नी को खाना बनाना नहीं आता , वह अपनी तनख्वाह का साझा नहीं करती और उसे कपड़ों की तह बना कर रखना नहीं आता।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
जस्टिस मजूमदार ने कहा कि एक महिला दास नहीं है और याची का परिवार दकियानूसी है। वे लोग चाहते हैं कि उन्हें एक आदर्श किस्म की बहू मिले । अदालत ने बापट की पत्नी से सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि उसे यहां शादी नहीं करनी चाहिये थी।-<a href="http://adaalat.in/?p=33408">अदालत</a></div>
</span></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-31794247611425671202012-05-07T19:34:00.000+05:302012-05-07T19:34:50.954+05:30पति ने नहीं बनाये यौन संबंध तो दिया तलाक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;">पति ने नहीं बनाये यौन संबंध तो दिया तलाक</span></div>
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<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ऐसी महिला की तलाक की याचिका कबूल कर ली है जिसके पति ने यह कहते हुए यौन संबंध बनाने से इनकार कर दिया था कि पहले वह अपनी शैक्षणिक योग्यता और नौकरी को साबित करे। हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे इस लिए स्वीकार भी कर लिया क्योंकि हाल ही में उसने अपने एक फैसले में कहा था कि यदि पति या पत्नी में से कोई भी बेडरूम में संबंध बनाने से इंकार करता है तो वो किसी प्रताड़ना से कम नहीं।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
जस्टिस कैलाश गंभीर ने यह बात अपने फैसले में दोहराते हुए महिला द्वारा दी गई तलाक याचिका को मंजूर कर लिया। खास बात यह है कि पति ने पत्नी से सिर्फ यह कहकर बेडरूम में संबंध बनाने से इंकार कर दिया था, क्योंकि उसे लगता था कि उसकी पत्नी उसके स्तर की नहीं है। उसने पत्नी से कहा था कि वो पहले अपनी वो डिग्रियां दिखाये जिनका दावा शादी के वक्त किया गया था। यही नहीं उस नौकरी की वेतन पर्ची दिखाये जो नौकरी वो करती है।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
कोर्ट ने माना है कि शादीशुदा जिंदगी में सामान्य शारीरिक संबंध बनाने से मना करना बिल्कुल गलत है। शादीशुदा जिंदगी में पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध बहुत मायने रखते हैं और दोनों में से किसी के भी द्वारा इससे इनकार करना दूसरे पर प्रताड़ना है। हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने इसी टिप्पणी के साथ उस महिला की तलाक की याचिका कबूल कर ली।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
हालांकि इस मामले में यह बात भी सिद्ध हुई कि पत्नी ने शादी के वक्त उससे झूठ बोला था कि वो नौकरी करती है। शादी के कई दिन तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन कुछ महीनों बाद जब पति ने देखा कि उसकी पत्नी किसी तरह के काम पर नहीं जा रही है, तो उसने बेडरूम संबंधों से इंकार कर दिया।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
पत्नी को यह बात अच्छी नहीं लगी, जिस वजह से घर में कलह हुई और कई बार झगड़े भी, अंतत: पत्नि ने तलाक का फैसला किया और पारिवारिक अदालत में याचिका दायर कर दी। पारिवारिक अदालत ने भी यही फैसला सुनाया था कि यदि शारीरिक संबंध नहीं बनते हैं तो शादी का कोई मतलब नहीं। और इसके बदले में नौकरी के प्रमाण पत्र मांगना किसी क्रूरता से कम नहीं।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
याचिकाकर्ता महिला ने शादी से पहले दिए गए अपने बायोडाटा में खुद के नौकरी में होने की बात कही थी, जबकि वह नौकरी नहीं करती थी। इसके बाद पति ने उसके साथ यौन संबंध बनाना छोड़ दिया। इसी को आधार बनाकर महिला ने निचली अदालत से तलाक ले लिया था।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
मामला हाईकोर्ट में आने पर न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया और कहा कि शारीरिक संबंध बनाने से पहले शैक्षणिक योग्यता का प्रमाण पत्र पेश करने की शर्त रखना निश्चित रूप से नृशंसता और क्रूरता है और हिंदू विवाह अधिनियम के तहत यह तलाक के आधारों में से एक है।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
हाईकोर्ट में महिला के पति ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि उसने शादी के लिए अखबार में विज्ञापन दिया था। जिसके जवाब में महिला ने खुद के नौकरी में होने का दावा किया था। सुहागरात को दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बने थे, लेकिन इसके बाद पति ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। पति का कहना था कि शादी से पहले उसकी पत्नी नौकरी नहीं करती थी।</div>
</span><span style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;"><div style="text-align: justify;">
कई बार उसने शैक्षिक योग्यता के सर्टिफिकेट दिखाने के लिए भी कहा, लेकिन उसने सर्टिफिकेट नहीं दिखाया। पति का कहना था कि शहर में सहज जीवन-यापन करने के लिए उसे कामकाजी महिला की जरूरत थी। न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने अपने आदेश में कहा है कि पति ने इस पवित्र रिश्ते को सामान खरीद-फरोख्त का सिस्टम बना दिया है। पति ने पत्नी की नौकरी को ज्यादा तवज्जो दी।_<a href="http://adaalat.in/?p=33450">अदालत</a> </div>
</span></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-7459246964008851842012-03-24T06:45:00.000+05:302012-04-02T06:48:37.924+05:30अब तलाक के बाद भी पति की संपत्ति में हक होगा पत्नी का<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/Kemez_NIwbQ/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">अब तलाक के बाद भी पति की संपत्ति में हक होगा पत्नी का</a></div><div style="text-align: justify;">Posted: 23 Mar 2012 11:03 PM PDT </div><div style="text-align: justify;">केंद्रीय कैबिनेट ने 23 मार्च को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में संशोधन के मकसद से तैयार विवाह कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 को संसद में पेश करने की मंजूरी दे दी है। इसके तहत दांपत्य जीवन में महिलाओं को कई नए अधिकार मिलेंगे। इस विधेयक के मुताबिक महिलाओं को तलाक के बाद भी पति की संपत्ति में पूरा अधिकार होगा। हालांकि उसे इसमें से कितनी संपत्ति दी जाएगी, इसका फैसला अदालत मामले के आधार पर करेगी। विधेयक की सबसे खास बात यह है कि इसमें पत्नी को अधिकार दिया गया है कि वह इस आधार पर तलाक मांग सकती है कि उसका दांपत्य जीवन ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जहां विवाह कायम रहना नामुमकिन है।</div><div style="text-align: justify;">विधेयक के मुताबिक पति-पत्नी में तलाक के बावजूद गोद लिए गए बच्चों को भी संपत्ति में उसी तरह का हक होगा, जैसा कि किसी दंपति के खुद के बच्चों को।</div><div style="text-align: justify;">विधेयक में यह व्यवस्था भी की गई है कि आपसी सहमति से तलाक का मुकदमा दायर करने के बाद दूसरा पक्ष अदालती कार्यवाही से भाग नहीं सकता। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 के तहत अभी व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्मातरण, मानसिक अस्वस्थता, गंभीर कुष्ठ रोग, गंभीर संचारी रोग और सात साल या अधिक समय तक जिंदा या मृत की जानकारी न होने के आधार पर तलाक लिया जा सकता है। स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 27 में भी तलाक के लिए इसी तरह के कारण दिए गए हैं। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी और स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 28 में तलाक की याचिका दायर करने के लिए आपसी सहमति को आधार बनाया गया है।</div><div style="text-align: justify;">यदि इस तरह की याचिका को छह से 18 महीने के भीतर वापस नहीं लिया जाता तो कोर्ट आपसी सहमति से तलाक की डिक्री दे सकता है। लेकिन, देखने में आया है कि जो दंपती आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दाखिल करते हैं उनमें कोई एक गायब हो जाता है और मामला लंबे समय तक अदालत में लटका रहता है। इससे तलाक चाहने वाले पक्ष को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। संसदीय समिति ने तलाक के लिए अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को खत्म करने का विरोध किया था।</div><div style="text-align: justify;">इसे ध्यान में रखते हुए विधेयक में कहा गया है कि यह फैसला अदालत के पास होगा कि वह तलाक के लिए अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि का पालन करवाती है या नहीं।</div><div style="text-align: justify;">राज्यसभा में यह विधेयक दो साल पहले पेश किया गया था। वहां से इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था। समिति के सुझावों को शामिल करते हुए विधेयक को फिर कैबिनेट के सामने पेश किया गया था। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इस विधेयक को पास कर दिया गया। अब यह विधेयक संसद में फिर से पेश किया जाएगा।-अदालत २३.०३.१२</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-85847121897899068162012-03-15T18:43:00.000+05:302012-04-02T06:45:14.543+05:30माँ बाप की देखभाल नहीं तो पैतृक संपत्ति भी नहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/70jiTAKW6aI/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">माँ बाप की देखभाल नहीं तो पैतृक संपत्ति भी नहीं</a></div><div style="text-align: justify;">Posted: 15 Mar 2012 10:31 AM PDT</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने वसीयत से जुड़े एक अहम फैसले में कहा है कि मां-बाप अपनी कृतघ्न संतान को पारिवारिक संपत्ति से बेदखल कर सकते हैं। किसी वसीयत की विश्वसनीयता पर इस आधार पर संदेह नहीं किया जा सकता कि वसीयतकर्ता ने पारिवारिक संपत्ति में ‘कृतघ्न संतान’ को हिस्सा देने से मना कर दिया और सारी संपत्ति उस बेटे के नाम कर दी जिसने बूढ़े मां-बाप की मृत्युपर्यत देखभाल की।</div><div style="text-align: justify;">जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का एक फैसला खारिज कर दिया। हाई कोर्ट ने वसीयतकर्ता हरिशंकर द्वारा दो बेटों विनोद कुमार और आनंद कुमार को दरकिनार कर तीसरे बेटे महेश कुमार के पक्ष में की गई वसीयत की प्रामाणिकता पर अविश्वास व्यक्त किया था।</div><div style="text-align: justify;">जस्टिस सिंघवी ने फैसले में लिखा है, ‘संयुक्त पारिवारिक संपत्ति में अपना हिस्सा अपीलकर्ता को देने के हरिशंकर के फैसले में कुछ भी अप्राकृतिक या असामान्य नहीं है। सामान्य समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति ने यही रुख अपनाया होता और संपत्ति में अपने हिस्से से कृतघ्न संतान को कुछ भी नहीं देता।’</div><div style="text-align: justify;">पीठ ने कहा कि इस केस में यह साबित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं कि हरिशंकर ने महेश कुमार के नाम वसीयत लिखी क्योंकि महेश ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बूढ़े मां-बाप की उनकी मौत तक देखभाल की। हरिशंकर की वसीयत में उन दो बेटों को कुछ भी नहीं मिला, जो पहले ही अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए थे। हाई कोर्ट द्वारा वसीयत पर संदेह जताए जाने के बाद महेश कुमार ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी।-अदालत १५.०३.१२</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-58484261026507394132012-03-12T18:41:00.000+05:302012-04-02T06:43:33.208+05:30सरकार को वित्तीय बोझ झेलने जैसा आम आदेश नहीं दे सकती अदालतें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/XqdkXUHIbL0/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">सरकार को वित्तीय बोझ झेलने जैसा आम आदेश नहीं दे सकती अदालतें</a></div><div style="text-align: justify;">Posted: 12 Mar 2012 03:12 AM PDT</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि अदालतों का इरादा चाहे कितना अच्छा ही क्यों न हो, वे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ऐसे आम आदेश नहीं दे सकतीं जिसे राज्यों पर बड़ा वित्तीय बोझ पड़ता हो और उनके लिए परेशानी खड़ी होती हो। शीर्ष अदालत ने यह व्यवस्था केरल सरकार की अपील पर दी।</div><div style="text-align: justify;">केरल सरकार ने इस अपील में हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उसे बसों के लिए बड़ी तादाद में ‘बस बे’ बनाने और पूरे राज्य में सड़कों के किनारे पार्किंग जोन बनाने की खातिर भूमि अधिग्रहण करने को कहा गया था ताकि हादसे कम हो सकें। जस्टिस आर.एम. लोढ़ा और जस्टिस एच. एल. गोखले की बेंच ने एक फैसले में कहा कि ऐसे आदेश इस तरह नहीं दिए जाने चाहिए।</div><div style="text-align: justify;">हाईकोर्ट ने 17 सितंबर 2008 को अपने आदेश में कहा था कि जरूरी होने पर सड़क के किनारे भूमि अधिग्रहीत कर गाडि़यों के लिए पार्किंग स्थल एक समय सीमा के भीतर तैयार किया जाना चाहिए, हालांकि हम इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं करते। इस आदेश को ही केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।</div><div style="text-align: justify;">हाई कोर्ट ने यह आदेश पी. सी. कृष्णकुमार नामक एक शख्स के परिवार के हर्जाना संबंधी दावे के निपटारे के दौरान दिया था। कृष्णकुमार केरल में एक बाइक पर अपने साथी के पीछे बैठ कर जा रहा था। कोयंबटूर-पलक्कड़ नैशनल हाइवे पर यह बाइक सड़क के किनारे गलत तरीके से और बिना इंडीकेटर के, पार्क किए गए एक ट्रक से टकरा गई जिससे कृष्णकुमार की मृत्यु हो गई थी।-अदालत १२.०३.१२</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-40312802618223069792012-03-09T06:40:00.001+05:302012-04-02T06:49:57.615+05:30आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण मामले पर पुनर्वास, पुनर्स्थापन व आर्थिक मुआवजे का लाभ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/Rq9au8DKQWU/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण मामले पर पुनर्वास, पुनर्स्थापन व आर्थिक मुआवजे का लाभ</a></div><div style="text-align: justify;">Posted: 08 Mar 2012 10:37 PM PST</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ढाई दशक पुराने आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को 2011 में बनाई गई नीति के तहत प्रभावित परिवारों को पुनर्वास, पुनर्स्थापन व आर्थिक मुआवजे का लाभ देने को कहा है। शीर्षस्थ अदालत ने राज्य सरकार की ओर से नयी नीति के तहत आदिवासियों को लाभ प्रदान किए जाने के आश्वासन पर इस मुद्दे का निपटारा कर दिया है।</div><div style="text-align: justify;">राज्य सरकार इस नीति के तहत उस परिवार के एक सदस्य को नौकरी भी देगा जिसकी सौ प्रतिशत भूमि का अधिग्रहण किया गया था। जस्टिस डीके जैन की अध्यक्षता वाली पीठ ने प्रदेश के ऊर्जा विभाग की ओर से दाखिल हलफनामे में दिए गए आश्वासन को स्वीकार करते हुए अपने आदेश में नई नीति के तहत दिए जाने वाले लाभों को दर्ज कर लिया। साथ ही भविष्य में भी इस अधिग्रहण नीति के तहत आदिवासी परिवारों को लाभ प्रदान करने का आदेश दिया है।</div><div style="text-align: justify;">राज्य सरकार ने जवाब में कहा है कि राष्ट्रीय पुनर्वास नीति 2003 को प्रदेश सरकार ने 10 अगस्त, 2004 को अपना लिया था। उसके बाद ही प्रदेश सरकार की ओर से नयी भूमि अधिग्रहण नीति 2 जून, 2011 को तैयार की गई। इस नीति के तहत राज्य विद्युत निगम की ओर से भूमि अधिग्रहण से प्रभावित आदिवासी परिवारों को सभी प्रकार के लाभ दिये जाएंगे। इनमें से 642 परिवार ऐसे हैं जिनके पूरी भूमि का अधिग्रहण किया गया था।</div><div style="text-align: justify;">मिर्जापुर के दुड्भी में आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकार की ओर से 1978 से 1984 के दौरान किया गया था। सर्वोच्च अदालत ने दरअसल अक्तूबर, 09 में इस मामले में राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था। लेकिन राज्य की ओर से कोई जवाब नहीं दायर किया गया जिसके चलते अदालत ने कड़ा रुख अपनाया। अदालत ने आदिवासियों को नीति के तहत राहत न देने के मसले पर गत वर्ष 18 अक्टूबर को राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए मुख्य सचिव को तलब किया था।</div><div style="text-align: justify;">इस मामले में पहले राज्य के निगमों की ओर से अदालत को बताया गया था कि पुनर्वास और पुनर्स्थापन का कार्य पूरा हो चुका है। लेकिन याचिकाकर्ता ने इस संबंध में राज्य सरकार की ओर से कोई कदम न उठाए जाने का दावा किया था जिसके बाद आयुक्त मिर्जापुर ने राहत कार्य शुरू किया। इसके बाद ही प्रदेश सरकार ने सोनभद्र में अधिग्रहित की गई जमीन के मामले में स्पष्ट जवाब दाखिल किया।-अदालत-०८.०३.१२</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-39606518800751922302012-02-19T23:45:00.000+05:302012-02-22T12:49:14.433+05:30प्रक्रियात्मक खामियां फैसले को चुनौती का आधार नहीं हो सकतीं!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा है कि किसी आपराधिक मामले के फैसले में जब तक ऐसा स्पष्ट न हो कि न्याय नहीं मिला है, तब तक केवल प्रक्रियात्मक खामियों के आधार पर चुनौती या उसकी दोबारा सुनवाई का आदेश नहीं दिया जा सकता।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जस्टिस दलवीर भंडारी की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने कहा कि निश्चित रूप से किसी मामले की सुनवाई में निष्पक्षता और किसी भी स्थिति में आरोपी के बारे में कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए, लेकिन हर एक प्रक्रियात्मक खामी या कोर्ट द्वारा दिए गए किसी आदेश पर यदि उसी समय आपत्तियां नहीं उठाई जातीं तो ये सुनवाई को पक्षपातपूर्ण या गलत नहीं बना देता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पीठ ने यह आदेश मध्य प्रदेश के हत्या की सजा पाए रत्तीराम, सत्यनारायण व अन्य की अपील को खारिज करते हुए सुनाया। एक दलित की हत्या करने के लिए सजा पाए इन लोगों ने 1996 के सत्र न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी, जिसे हाईकोर्ट ने बनाए रखा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सजा के बाद आरोपियों ने इस आधार पर दोबारा सुनवाई किए जाने की मांग की थी कि मामले को सीआरपीसी की धारा 193 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के जरिए सत्र न्यायालय के समक्ष नहीं रखा गया था, बल्कि सीधे पुलिस के आरोप-पत्र के जरिए संज्ञान में लाया गया था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जस्टिस दलवीर भंडारी, टी.एस. ठाकुर और दीपक मिश्रा की पीठ ने कहा कि कहा कि मूल बात ये है कि क्या किसी पूर्वाग्रह या न्याय न होने की अवस्था में भी आरोपियों को ऐसी राहत दी जा सकती है, जिससे कानून ही खतरे में आ जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस आधार से देखने पर सजा देने में और सुनवाई में कोई गलती नहीं की गई है और दोबारा सुनवाई के आदेश नहीं दिए जा सकते हैं।-Adalat-<a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/gP-wb4rMIXA/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">प्रक्रियात्मक खामियां फैसले को चुनौती का आधार नहीं हो सकतीं</a>, Posted: 19 Feb 2012 11:13 PM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-66920651636511488672012-02-10T19:12:00.000+05:302012-02-10T19:12:12.774+05:30न्यूनतम गन्ना मूल्य के खिलाफ याचिकाएं खारिज, 50 लाख का जुर्माना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><b>लखनऊ।</b> इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने यूपी में राज्य सरकार के गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किए जाने के खिलाफ दायर 31 याचिकाओं को खारिज कर दिया। साथ ही याची चीनी मिलों पर कुल 50 लाख रुपए का जुर्माना ठोंका है। अदालत ने कहा है कि अगर हर्जाने की राशि जमा नहीं की जाती है तो उसे संबंधित जिलाधिकारियों द्वारा भू-राजस्व की तरह वसूल किया जाएगा। </div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;">जस्टिस देवी प्रसाद सिंह और जस्टिस एस. सी. चौरसिया की खंडपीठ ने यह अहम फैसला शुक्रवार को ईस्ट यूपी शुगर मिल्स असोसिएशन लखनऊ तथा 30 अन्य चीनी मिलों की तरफ से दायर याचिकाओं पर एक साथ सुनाया। </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;">इन याचिकाओं में राज्य सरकार ने सत्र 2011-12 के लिए राज्य परामर्शी गन्ना मूल्य तय करने संबंधी आठ नवम्बर 2011 के आदेश की वैधता को चुनौती दी गई थी। इस आदेश के तहत राज्य सरकार ने गन्ने की अगैती फसल के लिए 250 रुपए प्रति क्विंटल और सामान्य प्रजाति के लिए 240 रुपए प्रति क्विंटल तथा कम अच्छी किस्म के गन्ने के लिए 235 रुपए प्रति क्विंटल मूल्य तय किया था। </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;">अदालत ने याचिकाओं को खारिज करते हुए अपने फैसले में कहा है कि संवैधानिक प्रावधानों के तहत राज्य विधायिकाएं गन्ना मूल्य तय करने सम्बन्धी कानून बनाने में सक्षम हैं। कोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकार के तय किए गए न्यूनतम गन्ना मूल्य की जुडिशल रिव्यू करने का कोई कारण नजर नहीं आता। अदालत ने याचिकाओं में सत्र 2011-12 के लिए सम्बन्धित कानून से जुड़े पूरे तथ्य प्रस्तुत नहीं किए जाने पर इसे जुर्माना लगाए जाने योग्य मामला करार दिया और याचिकाकर्ता चीनी मिलों पर 50 लाख रुपए का जुर्माना लगाया है जो उन्हें दो महीने में उच्च न्यायालय में जमा करना होगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: inherit;">इस धनराशि में से 25 लाख रुपए उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद, को शोध आदि के कार्यों में खर्च करने के लिए दिए जाएंगे। परिषद, उस खर्च की रिपोर्ट अदालत को देगी। शेष धनराशि हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ स्थित सुलह 1 समझौता केन्द्र को दिए जाएंगे। अदालत ने कहा है कि अगर हर्जाने की राशि जमा नहीं की जाती है तो उसे संबंधित जिलाधिकारियों द्वारा भू-राजस्व की तरह वसूल किया जाएगा।-<a href="http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/11838549.cms">Nav Bharat Taims</a>, </span>10 Feb 2012, 1833 hrs IST,भाषा</div></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-89994389566987795102012-02-09T23:55:00.000+05:302012-02-22T12:41:00.710+05:30अलग रह रही पत्नी को भी सम्मानपूर्वक पति के सुसज्जित, सुविधायुक्त घर में रहने देने का आदेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि घरेलू हिंसा रोक कानून लागू होने के पहले से अलग रह रही पत्नी को भी इस कानून में दिए गए पति के घर को साझा करने के अधिकार का लाभ मिलेगा। जो महिलाएं घरेलू हिंसा रोक कानून लागू होने के पहले से अलग रह रहीं हैं वे भी इस कानून के तहत पति के घर में रहने के अधिकार का दावा कर सकती हैं। इस फैसले का लाभ देश में घरेलू हिंसा की शिकार हजारों पीड़ित महिलाओं को मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी वीडी भनोट की याचिका का निपटारा करते हुए यह फैसला सुनाया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर व न्यायमूर्ति जे चमलेश्वर की पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से सहमति जताते हुए कहा कि घरेलू हिंसा रोक अधिनियम, 2005 की धारा 12 में दाखिल की गई शिकायत पर विचार करते समय पक्षकारों के कानून लागू होने से पहले के व्यवहार पर भी विचार किया जा सकता है। ऐसा धारा 18,19 और 20 में पीड़ित महिला को संरक्षण देने पर विचार करते समय किया जा सकता है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली हाई कोर्ट का यह मानना भी सही है कि अगर कोई पत्नी कानून लागू होने से पहले पति के साथ रहती थी लेकिन कानून लागू होते समय वह अलग रह रही थी, तो भी उसे कानून में मिला पति का घर साझा करने के अधिकार का लाभ मिलेगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने पति को निर्देश दिया है कि वह अपनी पत्नी को अपने ही घर में पहली मंजिल पर रहने की सुविधा दे। घर पत्नी की रुचि और सुविधा के मुताबिक सुसज्जित हो और उसमें सभी मूलभूत सुविधाएं हों ताकि पत्नी सम्मान पूर्वक वहां रह सके। कोर्ट ने पति से 29 फरवरी तक इस आदेश का पालन करने को कहा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कोर्ट ने कहा है कि घर की सुविधा के अलावा पति 10 हजार रुपये महीने अन्य खर्चो के लिए भी पत्नी को देगा। भनोट दंपति की 1980 में शादी हुई थी और 2005 तक वे साथ रहे फिर अनबन हो गई।-Adalat, <a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/NL70f3RnW1A/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">अलग रह रही पत्नी को भी सम्मानपूर्वक पति के सुसज्जित, सुविधायुक्त घर में रहने देने का आदेश</a>, Posted: 09 Feb 2012 11:14 PM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-37663567467186949142012-02-08T20:39:00.001+05:302012-02-22T11:46:23.866+05:30मां-बाप की मर्जी के बिना शादीशुदा औलाद उनके घर नहीं रह सकती<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">बॉम्बे हाई कोर्ट ने दादर पारसी कॉलोनी के निवासी 73 साल के बुजुर्ग और उनकी 35 साल की बेटी के बीच एक फ्लैट को लेकर चल रहे मुकदमे की सुनवाई के बाद फैसला सुनाया कि बालिग हो चुकी संतान को अपने माता-पिता के घर में रहने के लिए उनकी सहमति जरूरी है। बिना सहमति के बालिग बेटा या बेटी माता-पिता की मर्जी के बिना उनके घर में नहीं रह सकते हैं। इस मामले में कोर्ट ने बेटी के फ्लैट पर दावे को खारिज कर दिया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस जेएच भाटिया द्वारा सुनाए गए फैसले के अहम बिंदु इस तरह से हैं :-</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div>यह माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने नाबालिग बच्चों की 18 साल की उम्र तक देखभाल करें।<br />
<br />
बालिग हो जाने के बाद माता-पिता की मर्जी के बिना उनके घर में रहने के लिए संतान के पास कोई भी कानूनी अधिकार नहीं होता है।<br />
<br />
बेटी के मामले में शादी के बाद वह अपने माता-पिता के घर में एक मेहमान होती है।<br />
<br />
चूंकि, शादीशुदा बेटी के पास अपने ससुराल में कानूनी अधिकार मिले होते हैं, इसलिए वह अपने मायके में माता-पिता की मर्जी के बिना उनके घर पर कानूनी तौर पर कोई दावा नहीं कर सकती है।<br />
<br />
माता-पिता की मर्जी से शादीशुदा बेटी जब तक चाहे उनके घर में रह सकती है।<br />
<br />
हिंदू लॉ, 1956 की धारा 20 के मुताबिक अगर गैर-शादीशुदा बालिग बेटी अपनी कमाई या किसी अन्य प्रॉपर्टी से खर्च नहीं चला सकती है तो फिर वह अपने पिता से गुजारे की मांग कर सकती है। गुजारे के तहत रहने के लिए घर, भोजन, कपड़े जैसी चीजें मुहैया करानी होती हैं। साथ ही बेटी की शादी की भी पिता पर जिम्मेदारी होती है।<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">दिल्ली की एक अदालत ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए 2009 में व्यवस्था दी थी कि कोई व्यक्ति अपने बुजुर्ग माता-पिता को गुजारा भत्ता देने के लिए न केवल कानूनी रूप से बाध्य है, बल्कि यह उसका नैतिक व सामाजिक कर्तव्य भी है। कोर्ट ने ये टिप्पणी दो भाइयों की अपील खारिज करते हुए की थी। इन भाइयों ने अपनी विधवा मां को एक-एक हजार रुपये का गुजारा भत्ता देने के आदेश को चुनौती दी थी। यह बात और है कि दोनों भाइयों की मासिक आय एक लाख रुपये से भी ज्यादा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अतिरिक्त सेशन जज केएस मोही ने 2009 में दिए अपने फैसले में कहा था कि मामले का रिकॉर्ड देखने से पता चलता है कि मां अपने प्रिय (पुत्र) से गुजारा भत्ता चाहती है जो कि उनका सामाजिक और नैतिक कर्तव्य भी है। इस मामले में मां ने दावा किया था कि उसके बेटे लाखों की आय होने और यह जानकारी होने के बावजूद कि वह वृद्ध और अशिक्षित महिला है, उसे एक धेला भी नहीं देते हैं। सीआरपीसी का सेक्शन 125 परित्यक्ता विवाहित महिलाओं और माता-पिता को गुजारे भत्ते का अधिकार देता है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल सिर्फ बेटों की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि शादी शुदा बेटियां भी अपने बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल करने के लिए कानूनन बाध्य की जा सकती हैं। कुछ महीने पहले राजस्थान हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बुजुर्ग मां-बाप के देखभाल की जिम्मेदारी बेटों के अलावा शादी-शुदा बेटियों को भी सौंपी थी।-Adalat, <a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/cAqwIiIvVI0/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">मां- बाप की मर्जी के बिना शादीशुदा औलाद उनके घर नहीं रह सकती</a>, Posted: 08 Feb 2012 03:30 PM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-2151077633009025742012-02-08T11:53:00.000+05:302012-02-22T12:41:34.456+05:30विज्ञापित रिक्तियों से अधिक का चयन या नियुक्ति असंवैधानिक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि रिक्त पदों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद सरकार, विज्ञापन में दिये रिक्त पदों से ज्यादा नियुक्तियां या चयन नहीं कर सकती, क्योंकि ऎसा करना संविधान का उल्लंघन होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर और न्यायमूर्ति एसएस निज्झर ने कहा कि ऎसा कोई भी फैसला अनुच्छेद-14 के तहत कानून के समक्ष समानता और अनुच्छेद-16 के तहत सार्वजनिक नियुक्तियों के समान अवसर पाने के अधिकार का उल्लंघन होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">खंडपीठ ने कहा कि अगर उम्मीदवारों को इस बात की जानकारी होती कि अन्य रिक्त पदों को भरने पर भी विचार किया जा रहा है, तो ज्यादा तादाद में उम्मीदवारों ने अर्जी दी होती।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने ये व्यवस्था असम सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली अपीलों को खारिज करते हुए दी। असम सरकार ने भूमि रिकॉर्ड और सर्वेक्षण निदेशालय में रिक्त 690 पदों को न भरने का फैसला किया था, क्योंकि अधिकारियों के मुताबिक केवल 160 पदों पर नियुक्ति के लिए शुरूआती विज्ञापन दिया गया था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पीडित उम्मीदवारों की दलील दी कि चुने गए उम्मीदवारों की सूची में पांच सौ साठ उम्मीदवारों के नाम है| इसलिए बाकी के रिक्त पदों पर उन उम्मीदवारों को नियुक्त किया जा सकता है, जिनका नाम चुने गए उम्मीदवारों की मौलिक सूची में था और इन पदों के लिए नये सिरे से विज्ञापन देने की जरूरत नहीं है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इन उम्मीदवारों की याचिका खारिज कर दी थी| जिसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।-Adalat, <a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/vP3HnMeEf-8/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">विज्ञापित रिक्तियों से अधिक का चयन या नियुक्ति असंवैधानिक</a>,Posted: 08 Feb 2012 08:28 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-26632142665199127962012-02-08T11:33:00.001+05:302012-02-22T11:36:31.602+05:30‘डिज़िटल रेप’ जैसे मामलों में बलात्कार की परिभाषा बदलने का समय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">जिला न्यायालय रोहिणी स्थित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश डॉ. कामिनी लॉ ने 80 वर्षीय महिला के साथ हुए डिजिटल रेप के मामले में दोषी को सजा सुनाते हुए टिप्पणी की है कि दुष्कर्म की परिभाषा को बदलने का समय आ गया है। अदालत दुष्कर्म को एक सीमा तक ही परिभाषित कर सकती है। किसी भी अपराध को परिभाषित करने और उसके लिए कानून बनाने का काम विधायिका का है। विश्व के कई देशों में दुष्कर्म को विस्तृत तरीके से परिभाषित किया गया है और अब समय आ गया है कि देश में भी इस कानून को विस्तृत तरीके से परिभाषित किया जा सके। इससे छोटी बच्चियों और बुजुर्ग महिलाओं के प्रति हो रहे शारीरिक शोषण पर न्याय दिलाया जा सकेगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अदालत ने कहा कि दुष्कर्म को और विस्तृत तरीके से परिभाषित करने और कानून में बदलाव करने की जरूरत है। अदालत नेडिजिटल रेप, मेल रेप, ओरल रेप सहित बलात्कार के कुछ अन्य तरीकों को दुष्कर्म के अंतर्गत लाने की वकालत की है। अदालत ने कहा कि अन्य देशों मसलन स्कॉटलैंड, आस्ट्रेलिया, विक्टोरिया, आयरलैंड और अमेरिका में दुष्कर्म को नए व विस्तृत तरीके से परिभाषित किया गया है। लिहाजा, अब समय आ गया है कि देश में इस अपराध की परिभाषा में बदलाव लाया जाए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली महिला आयोग की ओर से पेश अधिवक्ता ने भी अदालत के इस सुझाव पर हामी भरी। दिल्ली महिला आयोग ने अदालत के समक्ष कहा कि कोई कारण नहीं है कि दुष्कर्म और विस्तृत तरीके से परिभाषित न किया जाए। अदालत ने मामले में आदेश की प्रति दिल्ली सरकार और दिल्ली महिला आयोग को भेजी है और मामले में उचित कार्रवाई करने के आदेश दिए हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मामले में पीड़ित महिला 80 वर्ष की हैं इसलिए अदालत ने महिला को शीघ्र वृद्धा पेंशन देने के निर्देश दिए थे। अदालत ने कहा कि उपायुक्त के आदेश के बाद भी सरकार के लालफीताशाही रवैये की वजह से पीड़ित को वृद्धा पेंशन नहीं मिल पा रही है। ऐसे मामले में सरकार का इस प्रकार का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण है। इस मामले में सरकार को गंभीरता दिखानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ यह दुर्भाग्यपूर्ण है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">डिजिटल बलात्कार के दोषी युवक प्रहलाद (19) को अदालत ने अपहरण, कुकर्म और जान से मारने की कोशिश का दोषी पाते हुए दस वर्ष कैद की सजा सुनाई है। दोषी को बतौर जुर्माना 17 हजार रुपये देने के आदेश दिए गए हैं। जुर्माने की रकम में से 10 हजार पीड़ित मिलेंगे। साथ ही, दिल्ली सरकार को भी पीड़ित को 50 हजार रुपये मुआवजा देने के आदेश दिए गए हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस मामले के मुताबिक, पीड़ित को उसके परिजनों ने घर से निकाल दिया था। महिला त्रि-नगर इलाके के एक पार्क में बनी छतरी में रह रही थी। आसपास के लोग उसे खाना खिला देते थे। 20 मई-2011 की रात आरोपी युवक खींचकर महिला को साथ ले गया। उससे न सिर्फ जोर-जबरदस्ती की गई, बल्कि चोट भी पहुंचाई। दूसरे दिन अचेत हालत में महिला पार्क में मिली। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। बाद में पुलिस ने इलाके के छह युवकों को पकड़ कर सामने पेश किया तो महिला ने आरोपी की पहचान की थी।</div><div style="text-align: justify;">पीड़िता के निजी अंगों में उंगली प्रविष्ट करने को <a href="http://adaalat.in/wp-content/plugins/wordpress-feed-statistics/feed-statistics.php?url=aHR0cDovL3d3dy51cmJhbmRpY3Rpb25hcnkuY29tL2RlZmluZS5waHA/dGVybT1kaWdpdGFsJTIwcmFwZQ==">डिजिटल रेप</a> कहा जाता है।</div><div style="text-align: justify;">इसके पहले भी <a href="http://adaalat.in/wp-content/plugins/wordpress-feed-statistics/feed-statistics.php?url=aHR0cDovL2FkYWFsYXQuaW4vP3A9MTQ3NA==">दिल्ली हाई कोर्ट ने ‘डिजिटल बलात्कार’ को लेकर आईपीसी में संशोधन की ज़रूरत बताई</a> थी!</div><div style="text-align: justify;">Source : <a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/5W8QstJblnA/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">‘डिज़िटल रेप’ जैसे मामलों में बलात्कार की परिभाषा बदलने का समय</a>, Adalat, Posted: 07 Feb 2012 12:11 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-54505905763474138962012-02-07T23:21:00.000+05:302012-02-22T11:28:09.433+05:30रिटायर्ड कर्मी को नहीं किया जा सकता चार्जशीट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह साफ कर दिया है कि ऐसे किसी भी आरोपी के खिलाफ चार्जशीट दायर नहीं की जा सकती जो सेवानिवृत्त हो चुका है तथा वह मामला जिसके आधार पर चार्जशीट दायर की गई है, वह सेवानिवृत्ति से चार वर्ष पहले का हो। यह फैसला जस्टिस के. कानन पर आधारित खंडपीठ ने कपूरथला के जसबीर सिंह द्वारा दायर याचिका पर सुनाया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जसबीर सिंह 25 मई 2007 को पंजाब रोडवेज ट्रासपोर्ट कार्पोरेशन से सेवानिवृत्त हुआ था। उसके खिलाफ 11 सितंबर 2008 को सेवानिवृत्ति के एक वर्ष बाद एक मामले में चार्जशीट दायर कर दी गई। जसबीर सिंह ने इस चार्जशीट को रद्द करने की उच्च न्यायालय से अपील की थी। जसबीर सिंह की ओर से उनके वकील विकास चतरथ ने खंडपीठ को बताया कि जसबीर सिंह के खिलाफ दायर चार्जशीट पीआरटीसी के पंजाब सिविल सर्विस रूल 2.2 (बी) का उल्लघन है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">खंडपीठ ने याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि आरोपी के खिलाफ चार्जशीट उसके सेवाकाल के दौरान ही दायर की जा सकती है। आरोपी को जिस मामले में चार्जशीट किया गया है, वह वर्ष 1989 का है। वर्ष 2004 में आरोपी से इस विषय पर जवाब माँगा गया था। सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी किस्म की विभागीय कार्रवाई मान्य नहीं हो सकती। इसके साथ ही खंडपीठ ने संबंधित विभाग को याचिकाकर्ता के सभी सेवा लाभ चार सप्ताह के भीतर अदा करने के निर्देश दे दिए है।-<a href="http://feedproxy.google.com/~r/adaalat/~3/W7kTtIqaTh0/?utm_source=feedburner&utm_medium=email">रिटायर्ड कर्मी को नहीं किया जा सकता चार्जशीट</a>, Adalat, Posted: 07 Feb 2012 09:58 AM PST</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-90152723243713708552012-02-07T09:04:00.000+05:302012-02-07T09:04:21.204+05:30-शराब कांड-सरकारी मुआवजे पर स्थगनादेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">कोलकाता : कलकत्ता हाइकोर्ट ने संग्रामपुर शराब कांड में मृतकों के परिजनों को दिये जानेवाले सरकारी मुआवजे पर स्थगनादेश लगा दिया है. मुआवजे के खिलाफ दायर की गयी जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद मुख्य न्यायाधीश जेएन पटेल व न्यायाधीश संबुद्ध चक्रवर्ती की खंडपीठ ने यह निर्देश दिया.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">गौरतलब है कि गत वर्ष दिसंबर महीने में दक्षिण 24 परगना के संग्रामपुर में विषैली देसी शराब पीने से 172 लोगों की मौत हो गयी थी. राज्य सरकार की ओर से सभी मृतकों के परिजन को दो-दो लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की गयी थी. मुआवजे की घोषणा के खिलाफ चित्त पांडा नामक वकील की ओर से जनहित याचिका दायर की गयी थी. चित्त पांडा का कहना है कि सीधे नगद मुआवजा देने से एक गलत संदेश जायेगा कि शराब पीने से पैसा मिलता है.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इसके औचित्य पर सवाल उठाते हुए उन्होंने याचिका दायर की थी कि नगद मुआवजे के बदले इसे किसी और प्रकार से दिया जाये, मसलन पीड़ितों के परिवार के लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था या फिर उनका घर बनाया जाये, आदि हो सकता है. हाइकोर्ट ने मुआवजा देने पर आठ सप्ताह के लिए स्थगनादेश लगा दिया है. डीआइजी सीआइडी को चार सप्ताह के भीतर हलफनामा देकर जांच के संबंध में जानकारी देने को कहा है. आबकारी विभाग के सचिव को भी चार सप्ताह के भीतर हलफनामा देकर यह बताने के लिए कहा है कि इस मामले में विभाग के किसी कर्मचारी की लापरवाही हुई थी या नहीं. स्त्रोत : प्रभात खबर</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-12923754729658223672012-02-06T09:25:00.000+05:302012-02-06T09:25:58.044+05:30मंत्री जी ने तेज कार चलाई, इस्तीफा देना पड़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">ब्रिटेन में अदालती आदेश की अहवेलना करते हुए तेज रफ्तार से वाहन चलाने के आरोपी ऊर्जा मंत्री क्रिस हुन ने इस्तीफा दे दिया है। हुन पर आरोप है कि 12 मार्च, 2003 को स्टांस्टेड हवाई अड्डे से एसेक्स स्थित अपने आवास की ओर लौटते वक्त उन्होंने तेज रफ्तार से वाहन चलाने का अपराध किया था। हुन ने आरोप से इंकार किया था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">ब्रिटेन में ड्राइविंग संबंधी अपराधों के मामलों में लाइसेंस को लेकर अंक दिए जाते हैं। जब इन अंकों की संख्या 12 हो जाती है तो ड्राइविंग लाइसेंस रद्द हो जाता है। हुन के सामने यह स्थिति भी पैदा हो सकती है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हुन ने कहा, ‘मैं अपने आधिकारिक कर्तव्य अथवा अदालती सुनवाई के प्रभावित होने की स्थिति को टालने के मकसद से पद छोड़ रहा हूं।’-Adalat, Posted: 03 Feb 2012 06:45 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-80189113510534051162012-02-06T09:15:00.000+05:302012-02-06T09:15:54.614+05:302008 के बाद जारी सारे 122 मोबाईल कंपनियों के 2 जी लाइसेंस रद्द<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने 2 जी मामले में बड़ा फ़ैसला सुनाते हुए 2008 के बाद जारी सारे 122 लाइसेंस रद्द कर दिए हैं. 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए 2008 में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने बोलियां आमंत्रित की थी लेकिन जिस तरीके से टू जी स्पेक्ट्रम आबंटित किए गए उसे लेकर एक बड़ा घोटाला सामने आया और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली की खंडपीठ ने 2 फरवरी को इस मामले की सुनवाई करते हुए सभी 122 लाइसेंस रद्द करने के आदेश दे दिए हैं।</div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2012/01/sc.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2012/01/sc.jpg" width="302" /></a>एक अंग्रेजी दैनिक में पहली बार टू जी घोटाले का खुलासा होने के बाद नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम का लाइसेंस देने में एक लाख 76 हजार करोड़ रूपए के घोटाले की बात कही. यानि अगर बाजार मूल्य पर ये लाइसेंस दिए गए होते तो सरकारी खजाने को 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रूपए का नुकसान नहीं हुआ होता. ये लाइसेंस 2008 में दिए गए पर कीमत 2001 की नियमावली के आधार पर तय की गई. 2 जी मामले में ए राजा समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों और रिलायंस, एस्सार समेत लाभान्वित होने वाली कई कंपनियों के वरिष्ठ अधिकारियों को जेल जाना पड़ा.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस मामले को प्रशांत भूषण और सुब्रमण्यम स्वामी सुप्रीम कोर्ट में ले गए थे. सुब्रमण्यम स्वामी ने टू जी घोटाले में गृह मंत्री पी चिदंबरम पर भी मुकदमा चलाने की अपील की थी लेकिन आज, 2 फरवरी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत दी पर ये तात्कालिक है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चिदंबरम की भूमिका पर सुनवाई निचली अदालत में पहले होना चाहिए. इसके लिए चार फरवरी की तारीख तय की गई है.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">चिदंबरम टू जी स्पेक्ट्रम आबंटन के समय वित्त मंत्री थे और याचिका में कहा गया है कि अगर चिदंबरम चाहते तो ए राजा स्पेक्ट्रम आबंटन में मनमानी नहीं कर सकते थे, इसलिए चिदंबरम की मदद से ए राजा ने ये कथित घोटाला किया.सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद स्वामी ने कहा, “ये सारे लाइसेंस अवैध घोषित कर दिए गए हैं. लेकिन चार महीने का समय दिया गया है. इस अवधि में कंपनियां दोबारा सरकार के साथ करार कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बाजार भाव पर स्पेक्ट्रम दिए जाएं. “</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">उन्होंने बताया कि टू जी की जांच सीबीआई के बदले एसआईटी से कराने पर कोर्ट ने कहा है कि ये जांच केंद्रीय सतर्कता आयोग करे. सुब्रमण्यम स्वामी के मुताबिक जहां तक जांच की निगरानी का सवाल है तो ये सीवीसी के तहत होगी. तीसरी बात कोर्ट ने कही है कि ट्रायल कोर्ट फैसला कर सकती है कि चिदंबरम के खिलाफ मामला बनता है कि नहीं.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जस्टिस गांगुली 2 फरवरी को अवकाश ग्रहण कर रहे हैं। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के अनुसार सेवाकाल के अंतिम दिन वह मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पीठ में शामिल थे।-Adalat, Posted: 01 Feb 2012 09:59 PM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-46874842399025100082012-02-06T08:52:00.000+05:302012-02-06T08:52:34.518+05:30निपटाए मामले को फिर उठाने पर लगा 20 हजार रुपये का जुर्माना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;">वकीलों द्वारा पूर्व कानूनी प्रक्रिया को ठीक ढंग से समझे बिना एक ही मामले को बार-बार उठाकर परेशान करने के चलन की आलोचना करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने पूर्व के निर्णय के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर करने वाले वादी पर 20 हजार रुपये का जुर्माना लगाया है।</div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जे मेहता ने कहा कि इन दिनों परेशान करने वाला चलन शुरू हो गया है, जिसमें कुछ वकीलों को इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सुनवाई के दौरान किस विषय पर बहस हुई। वे नया वकालतनामा दायर कर देते हैं और अदालत में निर्णय के समय सामने आई बातों को समझे बिना ही दलील देने लगते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2011/12/gavel25.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="222" src="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2011/12/gavel25.jpg" width="320" /></a>दिल्ली हाईकोर्ट ने यह निर्णय नारायण दास आर इसरानी की ओर से निचली अदालत के निर्णय के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए सुनाया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">नारायण दास आर इसरानी ने निचली अदालत के निर्णय के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। सुनवाई के दौरान इसरानी के वकील ने अदालत से यह कहते हुए याचिका वापस ले ली कि उनके विवाद का निपटारा मध्यस्थता केंद्र में हो सकता है। कुछ ही समय बाद इसरानी ने एक अन्य वकील के माध्यम से एक और याचिका के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में संपर्क किया और पूर्व के आदेश की समीक्षा करने की मांग की।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अदालत ने कहा, स्पष्ट है कि यह कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इसी के अनुरूप यह समीक्षा याचिका भी कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है, जिसे खारिज किया जाता है और 20 हजार रुपये का जुर्माना लगाया जाता है।-Adalat, Posted: 31 Jan 2012 08:51 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-55676853306231006552012-02-03T21:27:00.000+05:302012-02-06T09:28:45.114+05:30आर्मी चीफ उम्र विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने उठाए सवाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img src="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2012/02/v-k-singh_adaalat.jpg" /></div><br />
<div style="text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने 3 फरवरी को अपने फैसले में कहा कि जिस तरीके से सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की वैधानिक शिकायत को खारिज किया गया है वह दुर्भावना से ग्रस्त लगता है। न्यायालय ने इस मामले की अगली सुनवाई 10 फरवरी को तय करते हुए यह जानना चाहा कि क्या सरकार 30 दिसम्बर 2011 के अपने आदेश का वापस लेना चाहेगी।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने 30 दिसम्बर को एक आदेश जारी किया था जिसमें जनरल सिंह की उस वैधानिक शिकायत को खारिज कर दिया गया था जिसमें कहा गया था कि सेना के रिकार्ड में उनकी जन्मतिथि को 10 मई 1950 नहीं बल्कि 10 मई 1951 माना जाए।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और न्यायमूर्ति एच एल गोखले की पीठ ने सरकार पर प्रश्न उठाये। पीठ का मानना था कि रक्षा मंत्रालय का 21 जुलाई 2011 का वह आदेश अटॉर्नी जनरल की राय पर आधारित था जिसमें जन्मतिथि को 10 मई 1950 माना गया था। इसके साथ ही वह मामला भी अटार्नी जनरल की राय पर आधारित था जब 30 दिसम्बर को वैधानिक शिकायत पर आदेश पारित किया गया था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">जब न्यायालय ने पूछा कि क्या सरकार 30 दिसम्बर का अपना आदेश वापस लेना चाहेगी अटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती ने कहा कि वह इस मुद्दे पर सरकार के निर्देश प्राप्त करेंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">कोर्ट ने कहा कि यदि सरकार 30 दिसम्बर के अपने आदेश को वापस ले लेती है तो जनरल सिंह के समक्ष अन्य उपाय उपलब्ध हैं। न्यायालय ने कहा कि उस स्थिति में 21 जुलाई के आदेश के खिलाफ जनरल सिंह की वैधानिक शिकायत पर प्राधिकारियों द्वारा पुन: विचार किया जा सकता है तथा इसके अलावा उनके पास सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में जाने का विकल्प भी है। सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि जब यह कहा गया कि जनरल सिंह की शिकायत विचार योग्य नहीं है तब उनके पास सुप्रीम कोर्ट में आने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल रोहिनटन नरीमन ने सरकार के कदम का बचाव किया और कहा कि तथ्यों पर जनरल सिंह के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं बरता गया है ।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पीठ ने इसके साथ ही सरकार से पूछा कि क्यों नहीं इस मामले को समाप्त कर दिया जाए। इस बीच यह सुझाव दिये गए कि जनरल सिंह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के पास जा सकते हैं। पीठ ने कहा कि उन्हें अवकाश ग्रहण करने में केवल चार महीने ही शेष रह गए हैं इसलिए यह संभवत: सर्वश्रेष्ठ विकल्प नहीं होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">इस मामले में जनरल वी के सिंह ने मांग की है कि साल 1951 को उनके जन्म के साल के रूप मान्यता दी जाए। उधर सरकार का दावा है कि सेना प्रमुख का जन्म 1950 में हुआ था। सेना के दस्तावेजों में जनरल सिंह की दो अलग-अलग जन्मतिथि दर्ज है। जनरल सिंह ने अपने जन्म सम्बंधी दस्तावेजों का हवाला देते हुए कहा है कि उनका जन्म 1951 में हुआ था और इस तरह उन्हें मार्च 2013 में सेवानिवृत्त होना है।-Adalat, Posted: 03 Feb 2012 08:55 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-72515214811914106952012-02-02T21:32:00.000+05:302012-02-06T09:38:27.949+05:30बिना किसी विधिक आधार के नागरिकों के अधिकार नहीं छीन सकती सरकार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">माननीय छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति श्री सुनील कुमार सिन्हा तथा राधेश्याम शर्मा की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 162 की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि सरकार उक्त अनुच्छेद में प्राप्त शक्तियां बिना किसी विधिक आधार के नागरिकों के अधिकारों का हनन करने के लिए प्रयोग नहीं कर सकती।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">याचिकाकर्ता जयंत किशोर, अर्पिता शुक्ला, पूजा तिवारी, भेवेन्द्र कुमार तथा अन्य ने माननीय उच्च न्यायालय में संचालक तकनीकी शिक्षा के परिपत्र दिनांक 12.07.2010 तथा 20.08.2010 को चुनौती दी, जिसके तहत राज्य शासन ने सभी विश्वविद्यालयों को आदेश जारी किया था कि ऐसे अभ्यर्थी जिन्होंने इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा पीइटी, एआईइइइ आदि में शून्य अथवा ऋणात्मक अंक प्राप्त किए हैं, उन्हें किसी बीई कोर्स में प्रवेश की पात्रता नहीं होगी। सभी याचिकाकर्ताओं ने अलग-अलग निजी महाविद्यालयों में मैनेजमेंट कोटा की महंगी सीटों में उक्त परिपत्रों के जारी होने से पहले ही प्रवेश ले लिया था। स्वामी विवेकानंद तकनीकी विश्वविद्यालय ने उक्त परिपत्रों के आधार पर सभी याचिकाकर्ताओं का नामांकन करने से इन्कार कर दिया। माननीय उच्च न्यायालय ने याचिका की आरंभिक सुनवाई में अंतरिम आदेश जारी करते हुए सभी याचिकाकर्ताओं को परीक्षा में बैठाने का आदेश दिया। माननीय न्यायालय के अंतरिम आदेशों के तहत सभी याचिकाकर्ता तीसरे सेमेस्टर तक पढ़ाई पूर्ण कर चुके थे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">मामले की अंतिम सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता संदीप दुबे, मनोज परांजपे, जितेन्द्र पाली, वरूण शर्मा ने तर्क रखा कि छत्तीसगढ़ इंजीनियरिंग स्नातक पाठ्यक्रम प्रवेश नियम, 2010 के नियम 2.4 1⁄4ए1⁄2 के तहत सभी निजी इंजीनियरिंग कालेजों में 15 प्रतिशत सीटें मैनेजमेंट अथवा प्रबंधन कोटा होता है। उक्त प्रबंधन कोटे में छग तथा बाहर के राज्यों के छात्र भी पीईटी अथवा एआईइइइ जैसी प्रवेश परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर प्रवेश हेतु पात्र होते हैं। उक्त प्रबंधन कोटे में प्रवेश हेतु काउंसिलिंग कालेज स्तर पर होती है। उक्त प्रवेश नियम में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि पीइटी, एआइइइइ में कितने अंक न्यूनतम होंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">अतः संचालक तकनीकी शिक्षा का परिपत्र नियम विरूद्ध है तथा याचिकाकर्ताओं के शिक्षा के मूल अधिकारों का हनन करता है। उक्त परिपत्र सक्षम अधिकारी द्वारा जारी नही किया गया है। राज्य शासन ने अपने द्वारा जारी परिपत्रों का पुरजोर समर्थन करते हुए यह तर्क रखा कि संविधान के अनुच्छेद 162 के अंतर्गत राज्य शासन को परिपत्र जारी करने का अधिकार है। उक्त परिपत्र शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के उद्देश्य से जारी किए गए हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">माननीय उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय की नजीरों पर विचार करते हुए तथा अनुच्छेद 162 की व्याख्या करते हुए यह धारित किया है कि अनुच्छेद 162 के अंतर्गत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग केवल उन स्थानों पर हो सकता है, जहां संसद अथवा विधानसभा द्वारा पारित कोई कानून उपलब्ध न हो। जहां कोई कानून उपलब्ध हो वहां उस कानून के विपरीत कोई भी परिपत्र अनुच्छेद 162 के अंतर्गत जारी नहीं किया जा सकता। राज्य शासन इस प्रकरण में कोई भी ऐसा विधिक आधार प्रस्तुत नहीं कर सका, जिसके तहत परिपत्र जारी किया गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वर्ष 2011-12 में जारी प्रवेश नियम में न्यूनतम अंक का प्रावधान रखा गया है, परंतु वर्ष 2010 में प्रवेश लिए अभ्यर्थियों पर केवल आधारहीन परिपत्र के द्वारा रोक लगाना अनुचित है तथा संविधान की मूल आस्था के खिलाफ है। इस प्रकार माननीय उच्च न्यायालय ने सभी याचिकाकर्ताओं का प्रवेश वैध ठहराया है। स्वामी विवेकानंद विवि को भी निर्देशित किया है कि याचिकाकर्ताओं का नामांकन कर, उन्हें बी.ई. कोर्स बिना किसी बाधा के पूर्ण कराने के आदेश जारी किए हैं।-Posted: 02 Feb 2012 08:18 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-44542876959043735492012-02-02T21:16:00.000+05:302012-02-06T09:18:48.185+05:30गलत तरीके से प्रवेश लेने के बावजूद विशेषाधिकार के इस्तेमाल से बनेंगे डॉक्टर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;">सुप्रीम कोर्ट ने अपने विशेष संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए गलत तरीके से प्रवेश लेने के बावजूद केरल के चार छात्रों को एमबीबीएस कोर्स पूरा करने की अनुमति दे दी है। ये चारों छात्र एमबीबीएस में प्रवेश के लिए अनिवार्य कॉमन एंट्रेंस टेस्ट में पास नहीं हुए थे।</div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2012/02/Doctor-with-Stethoscope.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2012/02/Doctor-with-Stethoscope.gif" width="316" /></a>मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस सी. जोसेफ और जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने गलत तरीके से प्रवेश लेने के बावजूद निजी मेडिकल कॉलेज के इन छात्रों को कोर्स पूरा करने की अनुमति दे दी, क्योंकि ये अपनी साढ़े चार साल की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं। खंडपीठ ने इस मामले में विशेष मामला माना है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">पीठ ने कहा कि उसने सारी बातों पर गौर करने के बाद यह फैसला सुनाया है, क्योंकि अब इन छात्रों का प्रवेश रद्द करना उचित नहीं है। गौरतलब है कि दीपा थॉमस, अनु रूबीना अंसार, अंजना बाबू और अभय बाबू ने वर्ष 2007-08 में विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था। हालांकि उक्त छात्र भारतीय चिकित्सा परिषद की ओर से तय मानदंडों पर खरे नहीं उतरे थे.</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">यह एक ऎसा मामला है, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया और छात्रों को एमबीबीएस का पाठ्यक्रम पूरा करने की इजाजत दी।-Adalat, Posted: 02 Feb 2012 02:30 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-38659225461157075702012-02-02T14:39:00.000+05:302012-02-06T09:43:58.189+05:30प्रतिबंध अवधि में स्थानांतरण उचित नहीं, शासन के आदेश पर यथास्थिति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">माननीय उच्च न्यायालय छत्तीसगढ के न्यायमूर्ति श्री सतीश अग्निहोत्री जी की एकलपीठ ने वन विभाग द्वारा जारी स्थानांतरण आदेश पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश करते हुए सचिव वन विभाग, प्रधान मुख्य वन संरक्षक तथा वन संरक्षक कार्य आयोजना वनमंडल जांजगीर चांपा को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">याचिकाकर्ता सी.पी भारद्वाज की पोस्टिंग कार्यआयोजना जांजगीर चांपा में वर्ष 2008 में की गई थी। कार्य आयोजना का कार्य पूर्ण हो जाने पर याचिकाकर्ता का स्थानांतरण करते हुए वर्ष 2010 में सक्ती भेजा गया। याचिकाकर्ता की सेवानिवृत्ति में एक वर्ष से कम अवधि बचे होने के बावजूद दिनांक 07.01.2012 को नए स्थानांतरण आदेश जारी करते हुए पुनः कार्य आयोजना जांजगीर चांपा भेज दिया गया जिसका कार्य पूर्ण हो चुका है। उक्त स्थानांतरण आदेश में याचिकाकर्ता के अतिरिक्त 35 अन्य का भी स्थानांतरण किया गया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">याचिकाकर्ता ने उक्त स्थानांतरण आदेश को अधिवक्ता जितेन्द्र पाली, वरुण शर्मा के माध्यम से माननीय उच्च न्यायालय में चुनौती दी। तर्क यह था कि स्थानांतरण जोकि शासकीय सेवा की एक अनिवार्य घटना है तथा नियोजक के रूप में शासन का विशेष अधिकार है स्थानांतरण नीति से नियंत्रित होता है। छत्तीसगढ़ शासन ने इस सत्र 2011-12 के लिए स्थानांतरण नीति निर्धारित की है जिसमें स्थानांतरण करने की अंतिम तिथि 15 जुलाई 2011 नियत की गई है तथा उसके पश्चात स्थानांतरण पर प्रतिबंध रखा गया है। दिनांक 08 अगस्त 2011 को एक और आदेश जारी कर राज्य शासन ने यह व्यवस्था दी है कि प्रतिबंध अवधि में अत्यंत आवश्यक परिस्थिति में प्रमुख सचिव के समन्वय में मुख्य मंत्री से अनुमति पश्चात ही स्थानांतरण किए जाने है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">याचिकाकर्ता के स्थानांतरण हेतु कोई अत्यंत आवश्यक परिस्थिति उपलब्ध नहीं है। माननीय उच्च न्यायालय ने बड़ी संख्या में स्थानांतरण को अत्यंत आवश्यक परिस्थिति हेतु दी गई सुविधा का दुरूपयोग पाते हुए याचिकाकर्ता के स्थानांतरण पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश करते हुए राज्य शासन तथा अन्य प्रतिवादियों से जवाब मांगा है। राज्य शासन द्वारा स्थानांतरण की अंतिम तिथि नियत करने के पीछे मंशा यही थी कि लोकसेवकों को अनावश्यक रूप से सत्र के बीच में होने वाले स्थानांतरणों से परेशान न होना पड़े।-Adalat, Posted: 02 Feb 2012 08:39 AM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6171519465619779695.post-22128567778273854572012-02-02T09:04:00.000+05:302012-02-06T09:06:35.804+05:30बिहार विशेष न्यायालय अधिनियम 2009 को अपना सकती है सीबीआई<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;">केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation) ने बिहार में भ्रष्ट लोकसेवकों की संपत्ति जब्त करने वाले विशेष कानून को न सिर्फ सराहा है बल्कि इसे अपनाने की तैयारी भी कर रहा है। बिहार निगरानी ब्यूरो (विजिलेंस) के एक अधिकारी के मुताबिक इस कानून की खूबियों के आधार पर सीबीआई एक मसौदा तैयार कर सम्बद्ध मंत्रालय को प्रस्ताव भेजने वाली है। उन्होंने कहा कि बिहार की ही तरह सीबीआई भी भ्रष्ट लोकसेवकों की संपत्तियों को जब्त करने की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहती है।</div><br />
<div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><a href="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2011/12/cbi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://adaalat.in/wp-content/uploads/2011/12/cbi.jpg" /></a>दर असल, ‘बिहार ने नया कानून बनाकर संपत्ति जब्त करने की प्रक्रिया को कैसे सरल बनाया’ पर चर्चा के लिए पिछले दिनों सीबीआई के अधिकारियों ने एक बैठक बुलाई थी जिसमें बिहार विजिलेंस ब्यूरो के अपर पुलिस महानिदेशक पी़के ठाकुर ने हिस्सा लिया था। उनके अनुसार सीबीआई ऐसे मामलों में जिस कानून को अपनाती है वह बहुत जटिल और लम्बा है।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वह कहते हैं कि बिहार में भ्रष्ट लोकसेवकों की संपत्तियां जब्त करने की प्रक्रिया से सीबीआई बेहद प्रभावित है। उन्होंने बताया कि बिहार विशेष न्यायालय अधिनियम 2009 (<a href="http://adaalat.in/wp-content/plugins/wordpress-feed-statistics/feed-statistics.php?url=aHR0cDovL2FkYWFsYXQuaW4vUERGcy9CaWhhci1TcGVjaWFsLUNvdXJ0LUFjdC0yMDA5LnBkZg==">Bihar Special Courts Act, 2009</a>) के तहत यह प्रावधान है कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में सुनवाई के दौरान सरकार आरोपी की संपत्ति को जब्त कर उसका इस्तेमाल कर सकती है।-Adalat, Posted: 01 Feb 2012 06:39 PM PST</div></div>डॉ. पुरुषोत्तम लाल मीणाhttp://www.blogger.com/profile/15100263987556468191noreply@blogger.com0