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30.3.14

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-क में संशोधन सम्बन्धी ....













धारा - 498 (क) भारतीय दंड संहिता निम्न प्रकार है –

“किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उस के प्रति क्रूरता करना – जो कोई किसी स्त्री का पति या पति के नातेदार होते हुए, ऐसे स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा|”


संबद्ध विषय : इससे संबधित विषय निम्न हैं –

1- विवाह की संस्था,
2- विवाह की वैधानिक स्थिति,
3- विवाह में स्त्रीधन या दहेज की प्रथा (सामाजिक),
4 -विवाहोपरांत स्त्रीधन की माँग लेकर स्त्री की प्रति अव्यवहार,
5 -पति – पत्नी के आपसी सम्बन्ध पर असर,
6 -मतभेद झेल रहे / अत्याचार के साक्षी परिवार में बच्चों पर असर,
7 -पति या प्रतिपक्ष के द्वारा स्त्री के प्रति अपराधिक कार्रवाई,
8 -स्त्री के मानवधिकारों का पति या प्रतिपक्ष द्वारा हनन|

पृष्ठभूमि : दहेज प्रथा वर्षों से चली आ रही एक सामाजिक कार्यवाही है जो विवाह के समय कन्या पक्ष की ओर से दी जाने वाली एक दान राशि है| यह राशि किसी भी रूप में हो सकती है – नकदी, वाहन, घर-मकान, जेवरात इत्यादि| जो कन्या के माता पिता स्वैच्छिक रूप से वर पक्ष को देते हैं| लेकिन कालांतर में यह स्वैच्छिक दान वर पक्ष की ओर से जोर-जबरदस्ती से उगाही करने वाला स्रोत बन गया| जिसका परिणाम यह हुआ कन्या को दहेज के लिए उत्पीड़ित किया जाने लगा| और कई मामलों में यह उत्पीडन से बढ़कर दहेज हत्या तक पहुँच गया| इन सामाजिक बुराइयों और अपराधों के हेतु कानून बनाये गए हैं|

भारतीय दंड संहिता की ‘धारा 498-क’ निर्ममता तथा दहेज के लिए उत्पीड़न, ‘धारा 304-ख’ इससे होने वाली मृत्यु और ‘धारा 496’ उत्पीड़न से तंग आकार महिलाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली घटनाओं से निपटने के हेतु कानून बनाए गए| 2005 में बने ‘घरेलू हिंसा कानून’ को भी इसी से जोड़ कर देखा जाने लगा| लेकिन इन सभी कानूनों ने मिलकर स्त्री और मायके पक्ष को इतनी अधिक शक्ति दे दी कि अब इनका दुरुपयोग किया जाने लगा| स्थिति ऐसी बनी कि अब वधू पक्ष के बजाय वर पक्ष को अनेक तरह से सताया जाने लगा| अतः आज पीड़ित वर पक्ष के ओर से इसे बदलने की माँग की जाने लगी है|


दहेज उत्पीड़न व दहेज हत्या : विवाह और हत्या दोनों अलग अलग बिन्दु है| उत्पीड़न में पीड़ित व्यक्ति जीवित रहता है और अपनी बचाव की गुहार करता है| जबकि हत्या में पीड़ित व्यक्ति ही मृत हो जाता है| कानून भी दोनों के लिए अलग-अलग दंड देता है| उत्पीड़न से जुड़ा होने पर कानून ‘धारा 498-क’ तथा ‘घरेलू हिंसा अधिनियम’ के तहत कार्यवाई करता है जबकि हत्या में ‘धारा 304-ख, 307’ के तहत कार्य करता है| अतः यह स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे से जुड़े होने के बावजूद भी एक निश्चित स्तर पर पहुँच कर दोनों अलग-अलग हो जाते हैं|

दहेज उत्पीड़न - प्रकार :

1- शारीरिक (मारपीट करना, खाने को ना देना बिना सहमति के शारीरिक सम्बन्ध बनाना आदि)

2- मानसिक (गालीगलौच करना, अपशब्द कहना, ताने मारना, अभद्र व्यहार करना आदि)

3- सामाजिक (सामाजिक साख के विरुद्ध कार्य करना या समाज में अपमानित करना आदि)

4- आर्थिक (नकद, चल-अचल संपत्ति, जेवरात छीन लेना आदि)



दहेज उत्पीड़न : अपराध या सामाजिक समस्या ?

दहेज उत्पीड़न अपराध है या सामाजिक समस्या, इसके बीच बहुत ही सूक्ष्म अंतर है| वह अंतर यह है कि दहेज कारक है उत्पीड़न का| और दहेज को सामाजिक मान्यता मिली हुई है| इस स्थिति में दहेज एक सामाजिक समस्या है| लेकिन जब यह दहेज की प्रथा उत्पीड़न तक पहुँच जाती है और यदाकदा हत्या तक, तब यह अपराध बन जाती है| जिसे ना समाज स्वीकार करता है ना ही कानून|

सामाजिक समस्याओं (Social Evil) के उपचार में कानून की भूमिका : दहेज कोई पहली सामाजिक समस्या नहीं है जो उभर कर सामने आई है इससे पहले भी सम्स्याएं रहीं है जिनका उपचार कहीं समाज में बदलाव से कहीं कानून बना कर रोक लगाये जाने समाप्त हुई हैं जैसे –

सती प्रथा का उपचार – इसमें कानून आगे चला और समाज पीछे

बाल विवाह का उपचार – इसमें समाज आगे रहा और कानून पीछे


समाज में सती प्रथा के अंत में कानून का मुख्य भूमिका रही है| यह सीधे सीधे व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार को ही छीन लेता था| जिसे कानून के भय और सामाजिक जागरूकता से रोका गया| वहीँ बाल विवाह में समाज के पारिस्थितिक ढांचागत बदलाव (शिक्षा, कैरियर, नौकरी आदि) के कारण बहुत बड़ा परिवर्तन आया| साथ ही साथ कानून ने इस परिवर्तन को और अधिक बल दिया| जबकि दहेज की समाज में स्वीकार्यता है इसलिए समाज द्वारा स्वीकार्य होने के कारण इसमें कोई भीषण बदलाव की गुंजाइश नहीं बचती है| (आज तक की लम्बी अवधि गुजरना इसका एक प्रमाण है) और वहीँ कानून भी दहेज को रोकने में अक्षम साबित होता है| क्योंकि दहेज एक ऐसा दान है जो स्वैच्छिक है| अतः दान पर पाबन्दी नहीं लगाई जा सकती है| और दहेज कोई एकमेव कारण नहीं है जिसके कारण उत्पीड़न होता है, इसके अन्य कारण भी है| अतः उपचार की आवश्यकता विवाहोपरांत उत्पीड़न में है|




परिदृश्य परिवर्तन : विवाहोपरांत उत्पीड़न कारण – 

1- बेमेल विवाह (यह उम्र, शैक्षणिक योग्यता, मानसिक स्तर, परिवारक स्तर, आर्थिक स्तर आदि तमाम रुपों में देखा जा सकता है|)

2- स्त्री पुरुष कि पारस्परिक इच्छा के विरूद्ध शादी (आज के समय में अपने भविष्य को लेकर चाहे पुरुष हो या स्त्री सभी सचेत रह कर निर्णय लेना चाहते हैं परन्तु पारिवारिक दबाव में आकार वह विवाह अवश्य कर लेते है लेकिन वह चल नहीं पाते हैं|)

3- स्त्री की विशेष सामाजिक स्थिति (स्त्री दो परिवारों से जुड़ी होती है उसके माध्यम से उसके परिवारों को ब्लैकमेल कर सकते हैं या उसमे कम अभिरूची रखने वाला पक्ष दूसरे पक्ष को ब्लैकमेल कर सकता है|)

4- दहेज के लालच में किये गए बेमेल विवाह (अभी भी सामा- जिक मानसिकता यह है कि यदि वर पक्ष के पास घर है, पैसा है, प्रतिष्ठा है - तो विवाह कर दिए जाते हैं यह बात वधू पक्ष पर खास तौर से लागू होती है|)

5- दांपत्य जीवन में व्यभिचार संदेह की स्थिति (आज के खुले समाज में यह संदेह या शक की सुइयां दोनों ही तरफ बराबर प्रहार करती हैं)

उपचार की आवश्यकता :

1- विवाह में स्त्री पुरुष की आपसी सहमति होनी आवश्यक है| जो पारिवारिक या किसी अन्य दबाव रहित हो| क्योंकि अंतिम रूप से वही दोनों इस बंधन को निभाते हैं|

2- उपर्युक्त बिन्दु का पालन किया जाये तो बेमेल विवाह की समस्या स्वयं ही समाप्त हो जायेगी|

3- स्त्री की समाज में विशेष स्थिति होती है जबकि पुरुष एक परिवार में जन्म लेता है और वहीँ रहता है| स्त्री अपने जन्म घर को छोड़कर पुरुष के घर आती है| यदि वहीँ पुरुष घर छोड़ कर स्त्री के घर जाये तो उसकी भी कमोबेश यही स्थिति होगी| या फिर स्त्री के असल माँ बाप और भाई, स्त्री को उसके वैवाहिक घर से अलग कर के रखना चाहे तो क्या उस स्थिति में पुरुष और उसके बच्चे पीड़ित नहीं होंगे| अतः इस सामाजिक ढांचागत स्थिति विशेष में कोई विशेष उपचार का कोई विकल्प नहीं है|

4- साथ ही साथ समाज में यह जागरूकता भी लाने की कोशिश करनी होगी कि पैसा, पद, प्रतिष्ठा आदि ही सुख का आधार नह बनते हैं| क्योंकि यह सभी जड़ चीजें हैं हमें व्यक्ति विशेष पर जोर देना चाहिये ना कि उसके मान-सम्मान, धन-दौलत की|

5- इन सब के साथ ही व्यक्ति को अपने चारित्रिक नैतिकता को भी बचा कर रखना चाहिये| ताकि इस खुले समाज का असर उनके व्यक्तिगत जीवन पर ना पड़े|

उपचार योग्य बिन्दु :

1- विवाह की संस्था -

a. क़ानूनी विवाह

b. सामाजिक विवाह

c. प्रेम विवाह

d. लिव इन रिलेशनशिप

2- विवाह की क़ानूनी मान्यता -

3- विवाह विच्छेद की परिस्थितयां -
a. संतान हीन दम्पति
b. संतान युक्त दंपत्ति
4- उत्पीड़न का क़ानूनी समाधान
5- दोषी की पहचान और दंड के नियम
6- पीड़ित की पहचान और न्याय

सुझाव :

1- संस्था से जुड़े सुझाव -

 

a. क़ानूनी विवाह समाज व व्यक्ति द्वारा लिया गया जागरूक निर्णय है| कानून जिस सम्बन्ध का साक्षी होता है उसके उपचार का भी दायित्व कानू का है|

b. सामाजिक विवाह समाज की स्वीकृति का परिणाम है और समाज कानून का मुखोपेक्षी नहीं है, यदि उसका कृत्य अपराध के दायरे से बाहर है| इस स्थिति में दंपत्ति ने समाज के विश्वास पर आपसी निर्णय लिया होता है| इस स्थिति में उपचार का दायित्व समाज पर है, शर्त यह है कि उसका उपचार विधि विरुद्ध ना हो|

c. प्रेम विवाह व लिव इन व्यक्ति की चरम स्वतंत्रता से लिए गए निर्णय है, इस स्थिति में उपचार आपसी सहमति से हो सकता है| सहमति की अनुपस्थिति में क़ानूनी विवाह के नियम माने जाने चाहिये|

d. क़ानूनी विवाह से इतर व्यवस्थाओं में बच्चों का भविष्य असुरक्षित होता है| जिसके प्रतिवाद में वे अक्षम होते हैं| अतः न्याय सुनिश्चित करने के लिए किसी भी प्रकार के विवाह की स्थिति में प्रसव के समय विवाह का निबंधन अनिवार्य है|


2- क़ानूनी मान्यता से जुड़े सुझाव -
a. कानून केवल उन्ही परिवारों को मान्यता देगा जो क़ानूनी प्रक्रिया के अनुसार हुए है|
b. बच्चे के जन्मोंपरांत हर विवाह अनिवार्य रूप से क़ानूनी मान्यता प्राप्त होगा|
c. संतानहीन विवाह की स्थिति में सामाजिक, प्रेम विवाह, लिव इन क़ानूनी हस्तक्षेप से मुक्त होंगे व कानून की दृष्टि में वादों का निपटारा अन्य अपराधों के अन्तर्गत होगा|

3- विवाह विच्छेद से जुड़े सुझाव -
a. विच्छेद की प्रक्रिया को अत्यंत सरल व त्वरित होना चाहिये|
b. विच्छेद पूर्व योग्य परामर्शदाता से सीमित व समयबद्ध व्यवस्था की जा सकती है|
c. संतान हीन दम्पति का विच्छेद
i- यदि दम्पति की कभी कोई संतान नही रही है, तो यथावत विच्छेद स्वीकृत हो जायेगा|
d. यदि दम्पति संतानयुक्त है, या उनकी कभी कोई संतान रही है, तो विच्छेद की स्वीकृति दम्पति के क्रमानुसार नसबंदी व बंध्याकरण की शर्त के अधीन होगा| यह नसबंदी या बंध्याकरण ज्ञात चिकित्सकीय उपायों के तहत अंतिम व सताई होना चाहिये|


4- उत्पीड़न की स्थिति में सुझाव –

a. किसी विशेष क़ानूनी उपचार की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है|
b. तीन से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|
c. यदि विच्छेद अनिवार्य किया जा रहा है तो वैसी स्थिति में उत्पीड़क के द्वारा उत्पीड़ित को यथोचित मुआवजा दिया जा सकता है|


5- दोषी की उचित पहचान- उक्त व्यवस्था से दोषी की उचित पहचान की जा सकेगी तथा दंड के नियम भी समाज को अपराध से विरत कर सकेंगे| पीड़ित के रूप में उत्पीड़ित के महिला या पुरुष ही नहीं, बच्चे का महत्वपूर्ण स्थान है और इस शास्ति से उसे सर्वाधिक उचित न्याय दिया जा सकेगा|

संभावित परिणाम :

1- इसके संभावित परिणामों में सर्वप्रथम विवाह के पंजीकरण में वृद्धि होगी| समाज सुरक्षा के लिए क़ानूनी विवाह को अपनाएगा| साथ ही बच्चे के जन्म के समय विवाह के निबंधन की अनिवार्यता होने से पहले हुए विवाहों का पंजीकरण हो जायेगा| यह वैवाहिक सुरक्षा ‘pull’ और बच्चे के जन्म के समय अनिवार्यता ‘push’ का काम करेगी|

2- न्यायोचित तरीके से जनसंख्या में कमी की जा सकेगी| क्योंकि यदि कोई विवाह विच्छेद करता है तो वह संतानोत्पत्ति में अक्षम होगा| इससे उनकी विवाह पूर्ण संतान को पूर्ण हक़ मिलता रहेगा| क्योंकि अंतिम रूप से वही उनकी संतान रहेगी|

3- इस सब में व्यक्ति में जिम्मेदारी की भावना का विकास होगा| और वह अपने परिवार को भय से सही लेकिन तवज्जो देगा|

4- तलाक के मामले में आरंभिक वृद्धि होगी जबकि बाद के समय में कमी आएगी| साथ ही वैवाहिक जीवन के प्रति रूढ़ नजरिये में भी बदलाव आएगा|

5- उत्पीड़न की स्थितियों में कमी आएगी| क्योंकि तीन बार से अधिक बार उत्पीड़न पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है|

6- इस सब के साथ इसमें सामाजिक सहमतियाँ भी बनाई जा सकती है| जैसे तीन बार से अधिक बार उत्पीडन पाए जाने की स्थिति में विच्छेद की अनिवार्यता की जा सकती है| यह मुस्लिम समुदाय में प्रचलित ‘तीन तलाक’ के रिवाज की क़ानूनी अनुकृति है| इस कानून में मुस्लिम समुदाय अपने कानूनों की छाया देखेगा – अतः वह इसे स्वीकार करेगा| वहीँ हिंदुओं में विवाह की संस्था में विच्छेद का कोई प्रावधान ही नहीं है| अतः कठिनतम स्वीकृति के कारण वह भी इसे अपनायेगा| वहीँ ईसाई इसे व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता के रूप में देखेंगे और वह भी इस कानून को अपनी सहमति देंगे|

7- साथ ही इस सबके बाद भी कुछ मुद्दों पर इसका विरोध होगा, जैसे नसबंदी का मुद्दा| लेकिन यह विरोध सभी धर्मों से बराबर आएगा| अतः इसे जागरूकता के साथ और व्यावहारिक स्तर पर जनता के सामने लाना होगा| साथ ही यह भी याद रखना होगा कि सभी बदलाव लाने वाले नाए कानूनों का विरोध होता रहा है लेकिन उनका पालन करके समाज ने सुकून ही महसूस किया है|

8- इसके साथ ही इससे सामाजिक चिंतन में एक बदलाव की प्रक्रिया भी आरम्भ होगी|

संभावित परिणामों को इतने कम में आंकना परिणामों के प्रति उदासीनता होगी, अतः कहा जा सकता है इस बदलाव के बहुमुखी परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे|

(राज्य सभा, श्री भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता वाली समिति को भारतीय दंड सहिंता, 1860 की 'धारा 498-क' में संशोधन हेतु भेजे गए सुझाव|)

2 comments:

  1. ऐसा कानून भी बने की कोई कानून का गलत फायदा न उठाये

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  2. महिला सलाह व सुरक्षा केंद्र सही परामर्श दे ताकि अन्याय को रोका जा सके।

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